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भगवान् पार्श्वनाथ |
कैसे मोह शेष रह जाता है । सब ही पायवासनाओंका नाश अथवा उपशम होजाता है, केवल सूक्ष्म मंज्वलन लोम - बहुत ही क्रम नामका लोभ रह जाता है, यहां भी प्रथम शुक्लब्यान है ।
११. उपशान्तमोह-गुणस्थानमें मोहका उपशम होजाता है अर्थात् वह दब जाता है, निष्क्रिय होजाता है । यह भाव समस्त चारित्रमोहनीय कर्मोक उपशमसे होता है, यह भी प्रथम शुरू - व्यानका भेद है । यदि कोई मुनिजन विशेष बलवान न हुये तो वह यहांसे पतन करके चौथे अथवा दसवें गुणस्थान में पहुंच जाते हैं । वरन् वह दृढ़तापूर्वक आठवें गुणस्थानकी क्षपकश्रेणीमें उन्नति करने लगते हैं ।
१२. क्षीणमोह- गुणस्थान में मोहका अभाव होजाता है । समस्त चारित्रमोहनीय कर्मोका नाग यहां होजाता है। शुक्रव्यानका दूमरा दर्जा, जो पहलेसे अधिक विशुद्ध है, यहीं प्रगट होता है । मुनि दावे गुणस्थानसे सीधे इस गुणस्थानमें आते हैं, ग्यारहवें गुणस्थानमें जानेकी जरूरत नहीं है, क्योंकि वह उपशम श्रेणीसे सम्बंधित है ।
१३. सयोगकेवली - गुणस्थान चार घातियाकर्म रहित जीवानाकी शरीरसहित शुद्ध दशा है। वहां ज्ञानावर्णीय, दशनावर्णीय, अन्तराय और मोहनीय कर्मीका सर्वथा नाश होजाता है: जो आत्माके निजगुण प्रगट होने में बाधक हैं। बस इनके नष्ट होनेसे आत्मा शुद्ध, बुद्ध, जीवित परमात्मा होजाता है, जिसको अर्हन कहते हैं । पूर्ण ज्ञान, पूर्ण दर्शन और पूर्ण सुखना आत्मा यहां आधिकारी हो जाता है। सर्वज्ञया वह वत्वों का यथावत् प्रतिपादन करता