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धर्मोपदेशका प्रभाव। [२९१ उसने पूछा था कि प्राणों की उत्पत्ति कहांसे है ? वह शरीरमें कैसे आते हैं ? शरीरको छोड़ कैसे जाते हैं ? इसी सम्बन्धके उसने अनेक प्रश्न किये थे। पिप्पलादने इन प्रश्नोंको बहुत ही कठिन 'एक ' अतिप्रश्न' बतलाये थे तो भी यथाशक्ति उत्तर देते हुये उसने कहा था कि प्राणों की उत्पत्ति आत्मासे अथवा अपने निजी स्वाभाव (Inner Essence) से होती है । जीवन में आत्मा उसी तरह है जिसतरह सुर्यमें परछाई पड़ती है। ('आत्मना एषः प्राणो जायते । यथैव पुरुषे छाया एतस्मिन्नेतद् आततम् । प्रश्नोपनिषद ३३) आत्मा सम्राट्वत् शरीरके मध्य हृदयमें रहता है जिससे शरीरकी १ ० १ नाडियां निकलती हैं। इन्हींके द्वारा आत्म-सम्राट अपनी आज्ञाओं की पूर्ति इतर भागोंसे कराता है। यह आत्मा शरीरको मृत्युसे छोड जाती है । मरण समय और शायद जन्मते समय भी इद्रिय ननित ज्ञान (Sense-fuculties) मनमें केन्द्रीभूत रहता है । आत्मा इंद्रियजनित ज्ञानसे स्वतंत्र और ज्ञानमय होकर अपने पूर्व संकलित अच्छे, बुरे या मिश्रित लोक (यथासंकल्पितम् लोकम् ) को जाता है। अपने ही प्रकाशसे वह मार्ग देखता है
और अपने प्राणों की शक्तिसे यह लेनाया जाता है। आत्मा अथवा पुरुषको उसने शुद्ध उपयोगमई (विज्ञानात्मा ) माना था किन्तु उसने अपने खाप्त शमोको इतना अस्पष्ट कहा है कि उनका अर्थ लगाना भी मुश्किल है । तो भी उसने पुरुषके लिये प्राण, प्रकतिके लिए रयी, व्यक्त के लिये मूर्त और अव्यक्तके लिए अमूर्त
१-प्री० बुद्रिस्टिक इन्डियन फिलासफी पृ० २३१-२३२ । २-पूर्वक पृ० २३२ । -पूर्व० पृ. २३३ । ४-पूर्व० पृ० २३५ ।