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भगवानका धर्मोपदेश । [२६३ जाती हैं क्योंकि जीवात्मा इस संसारमे किसी क्षणके लिये भी प्रतिदिन मन, वचन, कायरूपी संकल्प विकल्पोसे रहित नहीं है। यदि किसी व्यक्तिने चिढ़कर अपने विपक्षीके ज्ञानोपार्जनमे अंतराय डाल दिया, उसकी पुस्तकों को छुपाकर रख दिया, उसने वहा अपनी असत् क्रियासे अपने आत्माके ज्ञानगुणको और ज्यादा ढक लिया; क्योंकि दूसरेके ज्ञानमे बाधा डालते समय उसके परिणामोमें विकलता और कायकी असतक्रिया हुई थी, जो तद्रूप सूक्ष्मपुद्गलको अपनी ओर खींचनेमे मुख्य कारण थी। इसी तरह दूसरेके दर्शन करने में अंतराय डालना, किसीको लाभ न होने देना आदि ऐमी क्रियायें हैं जो आत्मामें दर्शनावर्णीय अन्तराय आदि कर्ममलको अधिकाधिक बढ़ाती हैं। इनके बरअक्स दूसरोको ज्ञानदान देना, पढाना, शकाकी निवृत्ति करना, छात्रवृत्ति देना, ग्रन्थोका प्रकाश करना आदि ऐसे कृत्य हैं जो ज्ञानको आवरण करनेवाली कर्मवर्गणाको क्षीण बना देते हैं और इस दशामें जीवात्माका ज्ञान अधिकाधिक प्रगट होता है। संसारमें जो कोई अधिक ज्ञानवान और कोई बिलकुल जड़बुद्धि दिखलाई पडता है उसका यही ज्ञानावर्णीय कर्मकी अधिकता अथवा कमताई कारण है। इसी तरह किसीको इष्टदेवके दर्शन करा देना, लाभके मार्गमेंका रोड़ा दूर कर देना, धर्माचरण करना आदि सकृत्य ऐसे हैं जो आत्माके निजी गुणोंको प्रगट होने देनेमें सहायक हैं। इस तरह शुभाशुभ कर्मों द्वारा आत्माकी विविध दशाएं होती हुई इस संसार में देखी जाती हैं।
भगवान्ने अपने उपदेश द्वारा प्रत्येक मनुष्यके लिये यह सुगम बना दिया है कि वह अपने प्रयत्नों द्वारा सच्चे सुखको