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२७०] भगवान पार्श्वनाथ। त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पर्चेद्रिय जीव हैं । इनको त्रम और चतुरेन्द्रिय तकको विकलेंद्रिय भी कहते है ।
जीवके शुद्ध और अशुद्ध व्यवहारको समझनेके लिये ही भगवान्के धर्मोपदेशमें नयोंका निरूपण किया गया है । नय मुख्यरूपमें निश्चय और व्यवहाररूप ही है । निश्चयनय पदार्थोके असली स्वभावको व्यक्त करता है और व्यवहारनयसे उनकी विक्रन दशाओ अर्थात् पर्यायोंका परिचय मिलता है। इसी भेटको
और स्पष्ट करनेके लिये स्याद्वाद सिद्धात अथवा सप्तभंगी नयका निरूपण किया हुआ मिलता है | पदार्थों में अनेक गुण है, वह केवल दो दृष्टियोंसे भी पूर्ण व्यक्त नहीं होसक्ते इसीलिये सात नयों रूप स्याहादसिद्धान्त उमको स्पष्ट कर देता है । यह स्या
• स्याद्वादसिद्धात भगवान् महावीरसे बहुत पहलेका है, यह बात हिन्दूगात्रोंसे भी प्रकट है। 'अनुजित अन्याय' (Legs.2-12) पर टीका करते हुये नीलक कहते है -" मर्व सशतिमिति स्यावादिनः सप्तमगी नयना ।" (२ लो० अ० ४९) महाभारत, शातिपर्व, मोक्षधर्म अ० २३९ श्लो. में भी इसका उल्लेख है। स्यावाट सिद्धातको सशयात्मक मानना जैनियोंके साथ अन्याय करना है। श्री शकगचार्य उसके महत्वको समझ नहीं सके थे, यह महामहोपाध्याय डॉ० गंगानाथ झा सहश ब्राह्मण विद्वान् स्पट कह चुके है। प्रॉ० युवके शब्दोंमें " स्याद्वादका सिद्धान्त बहुत सिद्धान्तोको अवलोकन करके उनके समन्वयके लिये प्रकट हुआ है। यह अनिश्चयमे नहीं उपजा है। यह हमारे सामने एकीकरणका दृष्टिविन्दु उपस्थित करता है। शकराचार्यने जो स्याद्वादपर आक्षेप क्रिया है, वह इमरे मूल रहस्यपर वरावर नहीं बैठता ।. ....अनेक दृष्टिविन्दुओंसे देखे विना एक समग्र वस्तुका स्वत्प नहीं समझा जाता और इसलिए स्थाद्वाद उपयोगी तथा सार्थक है।"