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२६८ ] भगवान पार्श्वनाथ। करके वह क्रमश. उन्नति करता जाता है और इस लिहानसे उसके ग्यारह दर्ने भी नियुक्त हैं: जिनको ग्यारह प्रतिमायें कहते है। इनमें चारित्रकी शुद्धता क्रमशः बढ़ती गई है, जो आखिरमें उस मुमुशुको सचे मोक्षमार्गके द्वारपर पहुंचा देती है। पर्वतकी शिखरपर कोई भी व्यक्ति एक साथ छलांग मारकर नहीं पहुच सक्ता है । यही दशा यहां है-जीवात्मा दु खोंके गारमें पड़ा हुआ है. वह उनसे तब ही निकल सक्ता है जब अपनेको समाल कर किनारेकी ओरको पग बढ़ाता हुमा बाहरकी ओरको निकले
यहांतकके कयनसे संभव है कि यह शंकायें भी अगाडी आयें कि कमी जीवात्माको संपारमें फंसा हुआ दुःखी बताया गया है, कभी उसीको पूर्ण सुखरूप कहा है-कभी कर्मको उसके दुखका कारण बतलाया है और कभी उसको पूर्ण स्वाधीन कह दिया है । यह तो एक गोरख धंधेका सा पेच है । लोगोंको भुलावे में डालना है परन्तु वात दर असल यूं नहीं है । गम्भीर विचारके निकट ऐमी शंकायें काफर होजाती हैं। जीवात्माको स्वभावमें शुद्ध और सखरूप कहा गया है परन्तु वह अनादिकालसे संमारमें कर्माके आधीन हुआ दु.ख उठा रहा है। इसलिये वह अपने स्वभावच्चो पूर्ण प्रगट करनेमें असमर्थ है। उसकी दगा उस चिडियाकी तरह है जिसके पख सीं दिये गये हों और जो उड़ नहीं मक्ती है । परन्तु इस पराधीन अवस्थामें भी उसके उड़नेकी भक्ति मौजूद है । यदि वह प्रयत्न करके अपने बंधनोंको काट डाले तो वह अक्स उड़ सक्ती
है। यही दशा संसारमें फंसे हये जीवात्माकी है। संमारी अवस्था में _ वह स्वाधीन नहीं है ! कर्मोंकी जटिलता और निथिलताके अनु