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भगवानका धर्मोपदेश! [२७१ द्वाद सिद्धान्त स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् अस्तिनास्ति, स्यात् अवक्तव्य, स्थात् अस्ति अवक्तव्य, स्यात् नास्ति अवक्तव्य , और स्यात् अस्तिनास्तिअवक्तव्य रूप है । स्यात अस्तिनयसे द्रव्य अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप सत्तामें प्रगट होता है । स्यात्नास्ति दृष्टिसे द्रव्य अपने विरुद्ध द्रव्यके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोको न रखनेके कारण नास्तिरूप है। स्यात् अस्ति नास्तिकी अपेक्षा द्रव्य है
और नहीं भी है। स्यात् अवक्तव्यरूपसे द्रव्य वक्तव्यके बाहिर है। यदि हम उसको उसके निज औरपर दोनो रूपोंसे एक साथ कहना चाहते हैं । स्यात् अस्ति अवक्तव्य अपेक्षा द्रव्य अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप और साथ ही अपने एवं परके संयुक्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूपसे है और अवक्तव्य है । स्यात् नास्ति अवक्तव्य बतलाती है कि द्रव्य पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षा और उसीसमय अपने एव परके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके सयुक्त रूपसे नास्तिरूप है और अवक्तव्य भी है और स्यात् अस्त नास्ति अवक्तव्य दृष्टिसे द्रव्य अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे
और साथ ही अपने व परके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके संयुक्त रूपसे है, नहीं भी है और अवक्तव्य भी है। इस प्रकार स्याद्वाद सिद्धांतका प्रतिपादन भगवान पार्श्वनाथने भी पदार्थोको स्पष्ट सम. झनेके लिए अपने धर्मोपदेशमें किया था। पदार्थोमें नित्य, अनित्य, एक, अनेक आदि परस्पर विरोधी गुण एक साथ देखनेको मिलते हैं; परन्तु यह एक साथ क्हे नहीं जासक्ते । इसीलिये इस स्याहादसिद्धांतकी आवश्यक्ता है। यह उस पदार्थकी खाप्स अपेक्षासे उसके गुणोको ठीक तरहसे प्रगट कर देता है वरन् एकांत पक्षमें पड़कर