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भगवानका धर्मोपदेश ! [२५५ बातोंमें ब्राह्मणवर्ण अपनी प्रधानताका सिक्का जमाये हुये था, यह हम देख चुके हैं । साथ ही यह भी जान चुके हैं कि ईश्वरवादका बोलबाला उस समय होरहा था और जनता पारलौकिक बातोंमें भी पराश्रित बनी हुई थी। लोगोको विश्वास था कि जगतमें जो कुछ क्रिया होरही है वह ईश्वर आज्ञाका फल है तथापि विप्र लोगोंकी सहायतासे यज्ञ आदि रचकर इतना पुण्य कमा लेना इष्ट होता था कि जिससे प्रभु प्रसन्न होकर उन्हें स्वर्गसुखका स्वामी बना दें। इसीमें पारलौकिक धर्मकी इतिश्री साधारण जनताके लिये हो जाती थी और लौकिक धर्म में येनकेन प्रकारेण पुत्र-मुखके दर्शन कर लेना आवश्यक होरहा था। यहां ब्रह्मचर्य धर्म का प्रायः अभाव ही था, साधारण जनता इस दशासे पूर्ण संतोषित नहीं थी, यह भी हम देख चुके हैं। अस्तु, इस अवस्थामें लोगोंको पराश्रिताके दुःखदाई पंजेसे निकालना आवश्यक था । परावलम्बी होना हरहालतमें बुरा है, भगवान पार्श्वनाथजीके धर्मोपदेशसे लोगोंको यह बात बिल्कुल हृदयंगम होगई थी।
भगवान पार्श्वनाथने कहा था कि यह लोक अनादिनिधन है । न भी इसका प्रारंभ हुआ और न कभी इसका अन्त होगा, यह जैसा है वैसा ही रहेगा। परंतु इसमें परिवर्तन होते रहते हैं । इन परिवर्तनों में एक पर्याय-हालतकी उत्पत्ति, उसका अस्तित्व और दूसरीका नाश होता रहता है । इसतरह इस लोकमें कोई भी वस्तु स्थाई नहीं हैं। सब ही परिवर्तन शील हैं, अस्थिर हैं, पानीके बुदबुदेके समान नष्ट होनेवाली है , इसलिये इस परिवर्तनशील संसारके मोहमें पड़ा रहना ठीक नही हैं।