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२६४] भगवान पार्श्वनाथ । बताये गये हैं। लक्षणमय चिन्होंका उद्देश्य उनकी धार्मिक जीवनमें उपयोगिता है और उनके स्वरूपको प्रकट करना है । अब तीर्थकरोंका कथन है कि सम्यक्ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही मोक्षके कारण हैं (न कि बाह्य चिन्ह)।" केशीश्रमण इस उत्तरसे संतोपित होनाते हैं । इस घटनामे भी ऐतिहासिक सत्यको पाना जरा कठिन है, यद्यपि आनकल इतिहासज्ञ इसी मान्यतासे पार्श्वनाथजीकी शिष्य परम्पराको वस्त्रधारी प्रकट करते हैं, किन्तु हम अगाड़ी देखेंगे कि बात वास्तवमें यू नहीं है । जैन मुनियोका भेष प्राचीन कालमे भी नग्न ही था । यहापर जिस सरलतासे इस गंभीर मतभेदका समाधान किया गया है, यह दृष्टव्य है। उस जमाने में जबकि सेद्धान्तिक वादविवादका संघर्ष चर्मसीमापर था तब इस मतभेदका राजीनामा उस सरल ढंगसे होगया होगा जैसा कि उक्त, श्वे० सूत्र में कहा गया है, यह कुछ जीको नहीं लगता है । फिर भी जो हो, इससे हमारे कथनकी पुष्टि होती है कि समयप्रवाहका प्रभाव सामान्य घार्मिक क्रियायोमे अन्तर लासक्ता है । भगवान् पाश्वनाथ और भगवान महावीरजीके धर्मोपदेशके मध्य जो अन्तर था वह हम ऊपर देख चुके है और उससे यह स्पष्ट है कि भगवान पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित धर्म भी प्रायः वैसा ही था, जैसा कि आज हमें मिल रहा है । अस्तु,
भगवान पार्श्वनाथजीने अपने धर्मोपदेश द्वारा उस समयके सदान्तिक वातावरणको प्रौढ़ बना दिया था। साधरण जनता लौकिक और पारलौकिक दोनो ही वातोमें पराश्रित हो रही थी। लौकिक
१ जनमूत्र (S B. E) भाग २ पृ० १२३