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२६०] भगवान पार्श्वनाथ । चाहिये, किन्तु सबको समान रीतिसे उसमें आनंद नहीं मिलता। इसी तरह पान भारतीयोंको बडा प्रिय है । उसको खानेसे उनको आनंद मिलता है, परन्तु यूरो पेयन लोग उसको एक बहुत बुरी चीन समझते हैं फिर वह आनन्ददायक वस्तु कहां रही ? रोगी मनुप्यको वही मिष्टान्न कडुआ मालूम देता है जिप्तको वह पहले बड़े चावसे खाता था । इन प्रत्यक्ष उदाहरणोंसे यह स्पष्ट है कि बाह्य पदार्थोंमें सुख अथवा आनन्द नहीं है । साथ ही जरा और विचार करनेसे यह भी विदित होनाता है कि इंद्रियजनित विषयोंकी तृप्ति करनेमें भी सुख नहीं है । लोग कहते है कि मिठाई खानेमें बड़ा आनन्द मिलता है। दूसरे शब्दो रसना इंद्रियकी मना लूटनेमें आनन्द मिलता खयाल किया जाता है, परन्तु यहां भी भुलावा है । जिस समय हम किसी गहन चितामें व्यस्त होते है तो हमें रसना इद्रियका मजा तृप्त नहीं कर सकता है। हम उस विचारमग्न दशामें यह नहीं जान पाते हैं कि हमने क्या और कितना खा लिया है । यह क्यों होता है ? यदि रसना इंद्रियमें आनन्द देने या सुखी बनाने की शक्ति होती तो वह हरसमय आनददायक होना चाहिये थी ? परन्तु प्रत्यक्ष ऐसा नहीं होता है । जबतक जीवात्माका उपयोग उस इंद्रियकी क्रिया में लीन रहता है तब ही तक उसे आनन्द जैमा अनुभव होता है। इमलिये कहना होगा कि इन्द्रियननित विषयवासनाओंमें भी सुख नहीं है । सुख स्वयं हमारे भीतर है-हममें है-हमारी उपयोगमई मान्मामें है । अतएव सच्चा सुख पानेके लिये हमको सव ही ऐसे सम्बन्धोंको त्याग देना आवश्यक है जो जीवात्माके स्वभावके प्रति