________________
भगवानका धर्मोपदेश ! [ २५९ अधिक और तीव्र उसका संसार बंधता है । यदि कोई व्यक्ति बहुत 1 ही मन्दकषायी है तो सचमुच ही उसका भविष्य किचित् सुखमय है और इसके बरक्स जो व्यक्ति बहुत ही उग्ररूपमें कषायों में लीन है तो उसके लिये अगाडी दुःखों की जलती भट्टी तैयार है । - इसलिये यह जीवात्मा के ही आधीन है कि वह चाहे अपने जीवनको सुखरूप बनाले अथवा उसे दुःखोसे तप्तायमान एक ज्वाला- मुखी में पलट दे । किन्तु उसे यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि इस संसार में वह पूर्ण सुखी नहीं बन सक्ता है । धन-सम्पत्ति और ऐश्वर्य उसे निराकुल सुखको नहीं दिला सक्ते हैं । स्त्री, पुत्र और चंधुजन उसे सच्चे सुखका अनुभव नही करा मक्ते हैं । लोकमें कोई ऐसा पदार्थ नही है जो उसे स्थाई सुखका रसास्वादन करा सके ! जब कभी हम किसी कारण से आनंदमग्न होजाते हैं, तो यही कहते हैं कि 'आज हमने अपने आपका खूब आनंद लूटा ।' (We well enjoyed ourselves) यह उद्गार साफ कह रहा है कि हमारे बाहिर कही भी आनंद अथवा सुख नही है ! हम कहते हैं कि बढिया मिष्टान्न या सोहनहलुएमें बड़ा आनंद है, उसके खानेसे हमें आनंद मिलता है, परन्तु यह झूठा ख्याल है । न तो सोहन हलुए में आनन्द है और न उसके मीठार स्वाद लेने में कुछ सुख है । कितना भी खा लीजिये, पर उससे तृप्ति नही होती कि फिर उसको कभी न खानेके लिये तबियत न चले। फिर सोहनहलुआ सबको अच्छा भी नहीं लगता, कोई २ उसके नाम से चिढ़ते हैं तो फिर भला सोहनहलुए में आनन्द कहा रहा ? यदि उसका गुण आनंदरूप है तो सबको ही उसमें आनंद मिलना