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भगवान पार्श्वनाथ । इन दोनो समयों के शिष्य स्पष्ट रूपसे योग्य अयोग्यको नहीं जानते है । इसलिये आदि और अन्तके तीर्थमे इस छेटोपस्थापनाके उपदेशकी जरूरत पैदा हुई है। यहा यह भी दृष्टव्य है कि आचाचने न० ३३ की गाथामें छेदोक्स्थापनाके लिये पंच महाव्रत शब्द व्यवहृत किया है । वास्तवमें छेडोपस्थापनाकी संज्ञा पंचमहाव्रत भी है और इसमें हिसादिक भेदसे समस्त सादद्य कर्मका त्याग करना पड़ता है । श्रीभट्टाकलकदेव अपनी ' तत्त्वार्थ राजवार्तिक ' में यही लिखते है, यथा"सावयं कर्म हिंसादिभेदेन विकल्पनिहात्तिः छेदोपस्थापना।"
तथापि उन्होंने सामायिककी अपेक्षा व्रत एक ही कहा है और छेदोपस्थापनाकी अपेक्षा उसके पाच भेद किये हैं. जैसे'सर्वसावधनिवृत्तिलक्षणसामायिकापेक्षया एकं व्रतं । भेटपरतंत्रच्छेदोपस्थापनापेक्षया पंचविधं व्रतम् ॥"
अस्तु, इस शास्त्रीय उल्लेखसे हमारे पूर्वोक्त वक्तव्यका समर्थन होता है । श्री वट्टकेरस्वामी इन गाथाओंसे कुछ अगाडीवाली गाथाओ द्वारा भी इसी भावको स्पष्ट करते है। वह तीर्थंकरोंका और भी शासन भेद वदलाते हैं । लिखते हैं --- 'सपडिक्कमणो धम्मो पुरिसस्सय पच्छिमस्स जिणस्स । अवराह पडिकम्मणं मज्झिमयाणं जिणवराणं ॥७-१२२॥ जावेद अप्पण्णो वा · अण्णदरे वा भवे अदीचारो। तावेदु पडिक्कमणं मज्झिमयाणं जिणवराणं ॥ १२६॥ इरिया गोयर सुमिणादि सचमाचरद मा व आचरद । पुरिम चरिमादु सच्चे सव्वे णियमा पडिक्कमदि ॥१२७॥