________________
भगवानका धर्मोपदेश ! [२४५ अर्थात-'पहले और अंतिम तीर्थंकरका धर्म अपराधके होने और न होने की अपेक्षा न करके प्रतिक्रमण सहित प्रवर्तता है । पर मध्यके वाईस नीर्थकरोका धर्म अपराधके होने पर ही प्रतिक्रमणका विधान करता है, क्योंकि उनके समय में अपराधकी बाहुल्यता नहीं होती। मध्यवर्ती तीर्थंकरोंके समयमें जिस व्रतमें अपने या दूसरोंके अतीचार लगता है उसी व्रत सम्बन्धी अतीचारके विषयमें प्रतिक्रमण किया जाता है । विपरीत इसके आदि और अन्तके तीर्थंकरों ( ऋषभ और महावीर ) के शिष्य ईर्या, गोचरी और स्वप्नादिसे उत्पन्न हुए समस्त अतीचारोका आचरण करो या मत करो उन्हें समस्त प्रतिक्रमण दंडकों का उच्चारण करना होता है। आदि और अन्तके दोनों तीर्थकरोंके शिष्यों को क्यो समस्त प्रतिक्रमण दंडकोका उच्चारण करना होता है और क्यों मध्यवर्ती तीर्थकरोंके शिष्य उनका आचरण नहीं करते है ? इसके उत्तरमें आचार्य महोदय लिखते हैं:=
" मज्झिमयादिढबुद्धी एयग्गमणा अमोहलक्खाय । तम्हादु जपाचरंति तं गरहंता विसुज्ज्ञंति ॥ १२८ ।। पुरिम चरिमाद् जम्हा चलचित्ता चेव मोहलत्वाय । तो सब पडिक्कमणं अंघलय घोड-दिह्रतो ।। १२९ ॥" ___ 'अर्थात-मध्यवर्ती तीर्थंकरोके शिष्य विस्मरणशीलतारहित दृढबुद्धि, स्थिरचित्त और मृढतारहित परीक्षापूर्वक कार्य करनेवाले होते हैं । इसलिए प्रगट रूपसे वे जिस दोष का आचरण करते हैं उस दोषसे आत्मनिन्दा करते हुए शुद्ध हो जाते है । पर आदि
और अन्तके दोनो तीर्थंकरोंके शिप्य चलचित्त और मूढमना होते है। शास्त्रका बहुत बार प्रतिपादन करनेपर भी उसे नहीं