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कुमारजीवन और तापस समागम । [१२३ साधुके रूपको जानकर वहां जाना ही आवश्यक समझा । सखाजनों और अंगरक्षको सहित बडे ठाठ-वाटसे वे हाथीपर सवार' होकर बनविहारके लिये निकले । विहार करते २ वही पहुंच गये जहां वह साधु आया हुआ ठहरा था । राजकुमारने देखा यह साधु उनका नाना महीपाल है, जो अपनी रानीके विरहमे व्याकुल होकर तापसी होगया है और पंचाग्नि तप रहा है। राजकुमारको उसकी इस मूढक्रियापर बड़ा तरस आया । वे सरल स्वभाव उसके पास जा खड़े हुये । तापसी यकायक पार्श्वनाथको चुपचाप अपने पास' खड़ा देखकर क्रोधके आवेशमें आगया। वह बोला-"मै ही तुम्हारा नाना हूं, और राज्यविभूतिको पैरोंसे ठुकरा कर आज कठोर तपश्चरणका अभ्यास कर रहा हूं; फिर भी तुम्हें इतना घमण्ड है कि मुझे प्रणाम करना भी तुम बुरा समझते हो । प्रणाम करनेमें तो तुम्हें शर्म ही आती है न ?" |
राजकुमार पार्श्वनाथने तापसीके इन कटु वचनोंसे जरा भी अपने चित्तको विषादयुक्त नहीं बनाया ! उन्होने सहज ही जान लिया कि वह कितना सन्यास परायण है और उत्तरमें कहा कि'अज्ञानी होकर यह हिसामय तप, हे तापस ! तुम क्यों तप रहे हो ?' इतना सुनना था कि तापप्त आग बबूला होगया! उसकी भडकी हुई क्रोधाग्निमें राजकुमारके उक्त शब्दोंने घीका ही काम किया। पूर्वभवका इनका आपसी संयोग ही ऐसा था । यह तापस कमठका ही जीव था, जो नर्कसे निकल कर अनेक कुयोनियोंमें भटककर किंचित् पूर्व पुण्य-प्रभावसे महीपालपुरका राजा हुआ था और फिर तापसका वेष धारण करके इस समय राजकुमारके प्रति रोष