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भगवान पार्श्वनाथ |
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मित्र और तृण - कंचन सबमें समभाव रखकर उन्होने अपने सब वस्त्राभूषण उतार डाले | इतनेमें शचीने वहीं पर एक वटवृक्षके तले स्थित चन्द्रकांत शिलाको 'स्वस्तिका' से अलंकृत कर दिया । भगवान पूर्व की ओर मुख करके उसी स्फटिकमणी पाषाण शिलापर बिरान गए और हाथ जोडकर 'नम' सिद्धेभ्यः' कहकर उन्होंने सिन्होंको नमस्कार किया । फिर व ह्याभ्यंतर परिग्रहको तजकर पंचमुष्टिलोंच किया । इस प्रकार दिगम्बर मुद्राको धारण करके वे व्यानशीन होगये । नरनारी और देवसमृह भी भगवानकी अभिचदना करके अपने२ स्थानोको चले गये । उस दिगम्बर मुद्रामें भगवान बड़े ही सुन्दर जंचने लगे । कवि भी यही कहते है:'सोहे भूपन वसन विन, जातरूप जिनदेह | इन्द्र नीलमनिकों किधौ, तेजपुंज मुभ येह || पोह प्रथम एकादशी, प्रथम प्रहर शुभ वार पद्मासन श्री पार्सजिन, लियौ महाव्रत भार ॥ और तीन छत्रपति, प्रभु साहस अविलोय | गज छरि संयम धरच, दुख दावानल-तोय ॥ नव सुरेश जिनकेश सुचि. छीरसमुद्र पहुंचाय। कर श्रुति साथ नियोग सब गयौ मुरंग सुरराय ॥ * गयाँ
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भगवान वीरागमयी ध्यान अवस्थामें लीन हो गये । तीन नहीं उसी ध्यानमग्न दशामें स्थित रहे । उन्होंने
दिन तक
नेला उपवास कर लिया ! मुनियोंक अट्टाईम मृल्गुण और चौरा
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पारिश्र० १०
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