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२२०] भगवान पार्श्वनाथ । भला तीर्थकर भगवानका विचलित होना बिल्कुल असंभव था ! प्रत्युत इस परीक्षा समयपर-घोर उपसर्ग दशामें भी अपने व्यानको इतना प्रबल बनानेमें वे सफल हुये थे कि इमी ममय उनको केवलज्ञान-सर्वज्ञताकी प्राप्ति होगई थी ! संवर देवके भयानक संकटमय कृत्य उनके लिये फूलमाल हुये थे। वे त्रिलोक्यपूज्य
ईत्यद-तीर्थकर अवस्थाको प्राप्त हुये थे । शुद्ध, बुद्ध-जीवन्मुक्त परमात्मा बन गये थे । श्रीसमंतभद्राचार्यजी कहते हैं कि "भगवान पार्श्वनाथने दुर्जय मोह शत्रुको परम शुक्ल व्यानरूप खड्गकी तीन्ग धारसे मारकरके अचिन्तनीय अद्भुत गुणोंयुक्त स्थान२ पर तीन लोकी पूजाचा अतिशय आधार, ऐसा जो "माईन्य" पद है उसको प्राप्त किया । अर्थात् उपसर्ग दूर होनेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्तमें ही मोह कर्मको नाशकर केवलज्ञान लक्षणरूप अर्हन्त अवस्था उन्हें प्राप्त होगई।" (वृ० स्व० स्तोत्र ट० ७१ )
यह चैत्र कृष्ण चतुर्दशीचा पवित्र दिन था। पमय दोपहरसे कुछ पहलेका था। इसी समय पार्श्वनाथ भगवान तीर्थकरपदको प्राप्त हुये थे. स्वयं बुद्ध परमात्मा होगये थे। चराचर वस्तु तीनों लोककी उनके ज्ञान नेत्रोंमें सष्ट प्रतिभापित होने लगी थी। अनन्त दर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्यकी अपूर्व निधि उनको प्राप्त हो गई थी । उनका दिव्य औदारिक शरीर ऐसा चमकने लगा था मानो सहन सूर्य-मिका ही प्रकाश हो! दुख, शोक, सुवा, तृषा, राग, द्वेप आदि सब ही मानवी कमजो. रियों को उन्होंने परास्त कर दिया था। वे अब उनके निकट फट-. कने भी नहीं पाती थीं । वे सशगरी जीवित परमात्मा होगये थे