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२१८] भगवान् पार्श्वनाथ । आपसी वैर चला आरहा है, यह पाठकगण भूले न होंगे। उसी पूर्व वैरके वशीभूत होकर जब यह कमठका जीव संवर ज्योतिषीदेव अपने विमान में बैठा हुआ अश्वत्थ वनमें से जारहा था, तब मुनिराजके ऊपर नियमानुमार विमानके रुक जानेसे वह अपना पूर्व वैर चुकानेके लिये उपरोक्त प्रकार भगवानपर घोर उपमर्ग करने लगा था। ईसाको प्रारंभिक शताव्दियोंमें हुये महान विद्वान् श्री समतभद्राचार्यजी इस घटनाका उल्लेख इन शब्दोमें करते हैं कि"उपसर्ग युक्त नो पार्श्वनाथ हे उनको धरणेन्द्र नामके सपंराजने अपने पीली विजलीकी भाति चमकते हुये कांतिवान् फण समूहसे वेष्टित किया है (अर्थात् उप नगदा किया है)-जिम प्रकार मानो - संध्याकी लालिमा नष्ट हो जानेपर उसमें जो पीत विद्यतसे मिला हुमा पीतमेघ पर्वतको आच्छादित करता है।'
(वृहद स्वयंभू स्तोत्र ट० ७१) पापाचारी दुष्ट संवरकी दुश्चेष्टाका पता जब घरणेन्द्रको लगा तो वह शीघ्र ही अपनी देवी पनावती सहित वहां आये। जिनके प्रतापसे वे नाग-नागिनी भवसे देव-देवी हुये, उनको वह कैसे भुला सक्ते थे? वे फौरन हीभगवानकी सेवामें आकर उपस्थित हुये थे। उन्होने भगवानको नमस्कार किया और मणियोंसे मंडित अपना फण उनके ऊपर फैला दिया। पद्मावतीदेवीने उनपर सफेद छत्र लगाया था। इसीका उल्लेख श्रीसमन्तभद्राचार्यनीने किया है। एक अन्य आचार्य भी धरणेन्द्रके इस सेवाभावके विषयमें कहते हैं कि. • असमालोचयन्नेव जिनस्वाजप्यतां परैः । । चक्रे तस्योरगो रक्षामीदता हि कृतज्ञता ॥ ८०॥