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भगवान पार्श्वनाथ |
साक्षात् सूर्य हैं ।' उनपर तीन छत्र लग रहे थे और यक्षेन्द्र चवर ढाल रहे थे। वहां मदर पवन चल रहा था और समवशरणके वारह कोठों में अलग र मुनि आर्यिका, देव-देवांगना, श्रावकश्राविका पशु पक्षी आदि भव्यजन बैठे हुये अपूर्व शोभाको प्राप्त हो रहे थे। जिनेन्द्र भगवानके प्रभाव से समवशरणकी भूमि निर्दोष होगई थी । वहा उस समय किसीके परिणामों में किसी तरहका भी दोष नहीं था । सब ही जीव साम्यभावसे वहां विराजमान थे । आत्म-बलका प्रत्यक्ष साम्राज्य वहा फैल रहा था । आचार्य कहते हैं कि इसी समय भगवानके प्रमुख शिष्य स्वयम् नामक गणधर भगवान उनके निकट आकर उनका स्तवन बडे भक्तिभावसे करने लगे थे, यथादेवस्तदा गणवरः प्रथमं स्वयंभू
देवाधिदेवमुपढौक्य कृतप्रणामः ।
आनम्रमौलिकतया स्थितिमत्सु पश्चा
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दिद्रेषु वस्तुगणने हितमन्वयुक्तं ॥ अर्थात् - " प्रथम गणधर स्वयंभू देवाधिदेव भगवान् जिनेंद्रके पास आये । भक्तिपूर्वक नमस्कार करके उनके समीपमें बैठ गये तथा अपने पीछे मस्तक नमाकर इन्द्रोंके बैठ जानेपर उन्होने पदाथके विचारमें चित्त लगाया और वे इस प्रकार भगवान् जिनेंद्रकी स्तुति करने लगे । ”
इत्याद्यनेकनयवादनिगृहतत्त्वं,
जीवादिवस्तु खलु मात्मदृशामभूमिः । त्वं विश्वचक्षुरसि देव तव प्रसादात, सन्निर्णयोस्तु सुलभः स्वयमस्मदाद्यैः ॥