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ज्ञानप्राप्ति और धर्म प्रचार। [२२१ और उनके इस परमपद प्राप्त करनेका उत्सव मनाने इन्द्र व देव देवांगनायें फिर आये थे । आचार्य कहते हैं किततः प्रघोपं जयकारतूर्यैदिवौकसां उल्लसितं समंतात् । निश्म्य निर्मुच्यरूपं तदैव वभूव शत्रुः स च कांदिशीकः॥
अर्थात्-'केवलज्ञानके प्रगट होते ही देवोंका बड़े जोरसे जय जयकार शब्द होने लगा जिसे सुनते ही भूतानंद (संवर)का क्रोध एकदम शांत होगया और वह एकदम अवाक रह गया !'
और अपनेको अशरण जानकर भगवानकी शरणमें आया ! उसे वहीं शांतिका लाभ हुआ। उसे ही क्या, सारे ससारको इस दिव्य अवसर पर आनंदरसका आस्वाद मिल गया था। ' 'प्रकटी केवल रविकिरन जाम, परिफूल्यो त्रिभुवन कमल ताम। आकास अमल दीसै अनूप, दिसि-विदिसि भई सब कमलरूप ।।"
देवोंने आकर भगवानका केवलज्ञान पूजन किया और बड़े ठाठसे भगवानका समोशरण-सभाभवन रच दिया । मानस्तंम, पीठिका, आदिकर संयुक्त दिव्यमणियोंका बना हुआ वह समवसरण तीन लोककी संपदाको भी लज्जित कर रहा था। भगवान के इस ' सुन्दर समोशरणको देखकर पाखंडी लोगोंको यह भय होता था कि यहां कोई इन्द्रजालकी माया फैला रहा है । परंतु भगवानके निकट आनेसे यह सब मिथ्या धारणायें दूर भाग जाती थीं। समवशरप्णके ठीक मध्यमें उत्तमोत्तम पदार्थोसे बनी हुई भगवानकी गंधकुटी
थी। इसके बीचो बीचमें 'उदयाचल पर्वतकी शिखिरके समान, सिंहोंसे चिह्नित, मणिमयी सिंहासनपर विराजमान परम तेजस्वी भगवान उस समय नम्रीभूत देवोंको ऐसे जान पड़ते थे मानो ये