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भगवानका दीक्षाग्रहण और तपश्चरण। [ २१३ सीलाख उत्तर गुण उन भगवानने धारण कर लिये । वे मौन सहित योगसाधनमे अचल थे। इसी समय उन्हे मनःपर्यय ज्ञानकी प्राप्ति होगई थी। इसके उपरान्त वे निर्ममत्व, शांतिमुद्राके धारक, परम दयावान और परम उदास भगवान् शरीरकी रक्षाके लिये योग निरोध कर खड़े होगये और दीक्षावनसे एक
ओरको विधि सहित भूमि शोधते हुये चलने लगे और क्रमकर गुल्मखेट नामक नगरमें पहुंच गये। वहांके धर्मोदय अथवा धन्य नामक रानाने उनको बडी भक्तिसे पड़गाहकर-आमत्रित करके शुद्ध
और सरल आहार कराया था, जिसके पुण्यप्रभावसे उसके राजमहलमें देवोंने पचाश्चर्य किये थे। तीर्थंकर भगवानके समान त्रिलोक पूज्य परमोत्कृष्ट उत्तम पात्रको निर्विघ्न आहारदान देकर उस राजाने अपनी कीर्ति तीनों कालके लिये तीनों लोकमें फैलादी । इस आहारदानसे स्वय राजा धर्मोदय अपनेको ससारसे पार पहुंचा समझने लगा ! वह थोड़ी दूर तक भगवानके साथ गया और फिर भगवानकी आज्ञा पाकर अपने राजमहलको लौट आया । भगवान् वनमें जाकर तपश्चरणमें लीन होगये !
तपोधन भगवान् पानाथ वनमें आकर प्रतिमायोगसे दुर्द्धर तप तपने लगे और धर्मध्यानमें मग्न रहने लगे। उस समय उनकी परम पवित्र शांत मुद्राके जो भी दर्शन कर लेता था, वह अपने दुःख शोक सब ही भूल जाता था, स्वभावतः वह उनके चरणोंमें नतमस्तक होजाता था ! परन्तु भगवान तो परमोच्च उद्देश्यकी
१-पूर्ववत् और पार्श्वचरित पृ. ३८५ । २-पार्श्वचरित पृ० ३८५ । ३-हरिवशपुराण पृ० ५६९ और चंद्रकीर्ति आचार्य, पार्श्वचरित अ० १२ श्लोक १३ ।