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१२२] भगवान पार्श्वनाथ । असंगत प्रतीत नहीं होता। वेशक आजकलके जमानेके लिये यह एक वेढगी और अटपटी बात है। किन्तु पहलेके आत्मवादी जमानेमे इसमें कुछ भी अलौकिकता नहीं समझी जाती थी। भगवान पाश्वनाथ अवश्य ही हम आप जैसे एक मनुप्य थे, परन्तु उन्होने इस उत्कृष्टताको अपने इसी एक भवमे नहीं पाया था, बल्कि अपने पहलेके नौ भवोंसे ही वे इतनी उन्नति करते चले आरहे थे कि इस भवमे आकर उनकी आत्मा परमोच्चपदको प्राप्त हुई थी । इस विकाश क्रमको हमें नहीं भुला देना चाहिये और इसमें आश्चर्य करनेको कोई स्थान शेष नहीं रहता है । जैनशास्त्र आपके शिक्षादिके सम्म न्धमें यही कहते हैं । यथाः
'मतिश्रुतावधिनानान्येवास्य सहजान्यहो । भैरवोधिसनिः शेष तत्व विश्व शुभाशुभ ॥ ११ ॥ कलाविज्ञान चातुर्य श्रुतज्ञान महामते । विश्वार्थावगमतस्य स्वय परिणति यवौ ॥ १२ ॥
भगवान मति, श्रुति, अवधिज्ञान द्वारा जन्मसे ही विभूषित थे। कला, विज्ञान, चातुर्यतामें उनकी समानता कोई कर नहीं सक्ता था। विश्वभरकी सर्व विद्यायें आपको स्वयं प्राप्त हुई थीं। यह महापुरुषोंके लिये कोई अनोखी बात नहीं है, तिसपर भगवान पार्श्वनाथ तो उपरान्त अनुपम साक्षात परमात्मा ही हुये थे । अस्तु:
एक रोज सभा लगी हुई थी। राजकुमार पार्श्वनाथ प्रसन्न चित्त हुए अपने सखाजनोंके साथ आनन्दगोष्ठि कर रहे थे। इसी समय वनपाल-मालीने आकर रानकुमारसे वनमें किसी एक साधुके आगमन सम्बन्धी ममाचार मुनाये । राजकुमार पार्श्वनाथने अपने अवधिज्ञान (Clnirororance )से काम लिया। उन्होंने उस