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१९८] भगवान पार्श्वनाथ । जैनशास्त्र ऐसे उदाहरणोंसे भरे पड़े हैं जिनमें वृद्धावस्थाके आते ही लोगोने सन्यासको धारण किया है। सन्यासमें शरीरसे ममत्व रहता ही नहीं है और अन्तत सल्लेखना द्वारा समाधिमरण करना आवश्यक होता है। कास्पी लोगोमें ऐसा ही रिवाज प्रचलित होगा। इसी कारण स्ट्रेवो उसका उल्लेख विकृतरूपमें कर रहा है। आजकल भी अनेक विद्वान् जैन सल्लेखनाका भाव भूखों मरना समझते हैं; किन्तु वास्तवमें उसका भाव आत्मघात करनेका नहीं है। कंदवक वावड़ीसे प्रद्युम्न पातालमुखी बावड़ीमें पहुंचे थे। इसका नाम अन्तमें लिया गया है, इसलिये संभव है कि यह रसातल अथवा रसा-तेले (Rasa-tele) होगा जो रसा अर्थात् अक्षरतस नदीकी
उपत्ययिका थी' और यहासे भारतकी सरहद भी बहुत दूर नहीं ~ रह जाती थी, क्योंकि अफगानिस्तान यहासे दूर नहीं है, जो पहले ।
भारतमें सम्मिलित और उसका उत्तर पश्चिमीय सीमा प्रान्त था।' इसप्रकार उत्तरपुराणके कथनसे भी पाताल अथवा नागलोकका मध्य एशियामें होना प्रमाणित होजाता है; जमा कि आजकल विद्वान् प्रमाणित करते हैं, किन्तु इतना ध्यान रहे कि जैन दृष्टिसे यह पाताल लोक देव योनिका पाताल नहीं है बलिक विद्याधरके वंशजोंका निवास स्थान है।
आजकलके विद्वान मच्याएनियामें बसनेवाली उपरोक्त जातियोको अनार्य समझते हैं. परन्तु जैनदृष्टिमे वह अनार्य नहीं हैं; क्योंकि पहले तो वह आर्यखण्डमें वसते थे इसलिए क्षेत्र अपेक्षा वे आर्य थे और फिर यह लोग अपनेको काश्यपका वंशज वत
१-पूर्व भाग १ १०८:। २-निवन, ए. जाग० टन्दिया, १० १००-102 आर नाट पृ०
टन्टि, हिम्दा माग्टरी माग ... ....