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भगवानका दीक्षाग्रहण और तपश्चरण। [ २०९ विरक्त होगये । वे अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाओंका चितवन कर रहे थे कि इतनेमें अपने कर्तव्यके परे हुये लौकातिक देव वहापर आपहुंचे और भगवान के वैराग्यकी सराहना करने लगे। कहने लगे कि 'पुरुपोत्तम ! यदि अपने जातीय स्वभावके वशीभूत होकर और इस कार्यको अपना कर्तव्य समझकर हम आपके निकट आये है, परतु नाथ ! आपको प्रवुद्ध करनेको हममें सामर्थ्य कहां है ? आर स्वय वस्तुओके क्षणभंगुर विनागीक स्वभावसे परिचित हैं। उनसे आपका स्वयमेव विरक्त होना कोई अचरजभरी बात नहीं है। त्रिलोकीनाथ बनने का उद्यम करना यह आपके लिये पहलेसे ही निर्णीत है। यह तो हमारी उतावली है, मनकी व्यग्रता है जो हम आपको वैराग्यप्राप्तिमें सहायक बननेका दम भरकर यहां आपहुचे हैं । सचमुच हमारो यह क्रिया सूरनको दीपक दिखानेके समान है ! बस, चलिये और महावतोंको धारण कीजिये । आपके इस दिव्य कल्याणकसे ही हमारी आत्माओंको आनन्दका आभास मिलेगा।' इतनी विनयके साथ वे सब ब्रह्मलोकको चले गए।
इधर लौकांतिक देवोकी इस विनतीको सुनकर भगवान वैराग्यरसमें मग्न होगये और दिगम्बरी दीक्षा धारण करनेका दृढ़ निश्चय करने लगे। इस परमोच्च भावके उदय होते ही संसारमें फिर एक दफे इतनी प्रबल आनन्द-लहर फैल गई कि वह विद्युत गतिसे भी तेज चलकर सप्तारके कोने मे भगवानके दीक्षा कल्याणकके समाचार पहुचा आई ! विशिष्ट पुण्य प्रकृतिक प्रभावसे महान् पुरुषोंके निकट दिव्य बातें स्वमेव ही होने लगती हैं । भगवान्के तप धारण करनेके समाचार जानकर देवेन्द्र पुलकित वदन होकर