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भगवानका शुभ अवतार !
श्रीजिनेन्द्र भगवानको गर्भमें धारण किया था। नक्षत्र भी विमल, - विशाखा नक्षत्र था। जैनाचार्य इस शुभ घटनाका उल्लेख यूं करते हैं
'अथ दिविजवधूपवित्रकोष्ठ जठरनिवासमुपेतमनितेंद्रम् । अवहद दयिता नृलोकभर्तु खनिरिव सारमणिं निगूढकातिम् ॥'
अर्थात्-'जिसप्रकार छिपी हुई कांतिको धारण करनेवाली उत्कृष्ट मणिको, खानि अपने उदरमें धारण करती है, उसी प्रकार
मनुष्य लोकके स्वामी रामा विश्वसेनकी प्रियतमाने आनत स्वर्गसे - आये हुए भगवान पार्श्वनाथके जीव आनतेन्द्रको छप्पन दिक्कुमाके रियों द्वारा शुद्ध किये गये अपने उदरमें धारण किया।' ( पार्श्व२ चरित पृष्ठ ३४५)। .
इसप्रकार भगवान पार्श्वनाथ आनत स्वर्गसे चयकर महार राणी ब्रह्मदत्ताके गर्भमें आगये । उनके गर्भ में आनेसे वह महाराणी
उसी तरह विशेष शोभित होने लगी जिस तरह पूर्व दिशा प्रतापी a सूर्यके उदय होनेसे मनोहर बन जाती है । भगवानके गर्भावतारका र उत्सव भी विशेष सजधनके साथ मनाया गया था। देवलोकके
इन्द्र और देवगण बनारसमें आये थे और उन्होने जिनेन्द्रका 'गर्भद कल्याणक' महोत्सव किया था, यह जैनशास्त्र प्रकट करते हैं।
महाराणी ब्रह्मदत्ता वैसे ही विशेष गुणवती और विद्वान थीं, है परन्तु भगवानको गर्भमे धारण करनेपर उनने स्त्रियोके स्वभावोचित त सब ही गुणोंको सहज ही अपनेमें उदय कर लिया । भगवानका । ऐसा दिव्य प्रभाव था कि गर्भके बढ़ते जानेपर भी महाराणी ब्रह्म, दत्ताका उदर नहीं बढ़ा था। भगवान उनके गर्भमें उसी तरह
विराजमान थे, निसतरह सरोवरमे कमल कीचड़से अलग रहता है।