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११.८] भगवान पार्श्वनाथ । यह तीर्थकर भगवानकी पुण्य प्रकृतिका प्रमाव था । पूर्व जन्मान उन्होंने किस प्रकार देवना, गुरुभक्ति, व्रताचरण आदिकी टल. प्टताले पुण्य संचय किया था. यह हम पूर्व प्रकरणों में देख चुके हैं। इन्हीं धर्मनायोंके बल एक मत्त हाथीकी गतिमें पड़ा हुला जीव आत्मोन्नति करके त्रिलोक वंदनीय परमात्मा होगया | वन गव बन गया ! हमारे लिये इससे बढ़कर और आदर्ग क्या हो सत्ता है ?
महाराणी ब्रह्मइत्ताके नौमास बडे ही आनन्दसे त्रीने । दिवकुमारिया सदा ही उनकी सेवा सुश्रूषामें उपस्थित रहतीं थीं, वे उनकी तचिके अनुसार ही विनोद क्रियायें करके उनके हृदयको प्रफुल्लित करती थी। जब वह गूढ अर्थको लिये हये श्लोकोंन जय महाराणीसे पूछती थीं और वे यथोचित उनका उत्तर देती थीं, तब सचमुच यही भासने लगता था कि महारागीकी प्रत्तर बुद्धिको गर्भस्य वालचके दिव्यज्ञानने और मी प्रकाशमान कर दिया है। इधर देवों द्वारा रत्नवृष्टि पहलेकी भांति होरही थी। जिसने देखकर महाराणीना मन सदैव प्रसन्न रहता था । नियमित समयके पूर्ण होनपर महाराणीने पौष कृष्ण एकादशीके पवित्र दिन भगवान पार्श्वनाथन 'उसी तरह जना जैसे पूर्वदिशामें सूर्यका जन्न होता है। भगवान आनंदमई जन्मसे तीनों लेकके सब ही प्राणी हर्षित होगये। एक क्षण के लिये सब ही अपने दु.खो मूल गये । नक्रम पड़े हुए दाल्ण दुख सहते नारकियोंको भी उस समय सान्त्वना मिल गई ! तीर्थकर प्रकृतिच्न प्रभाव ही अगर होता है। आचाय कहते हैं:--