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भगवान पार्श्वनाथ |
कल्याणकारी जन्म हुआ जाना, तो वे वनारसकी ओर चल दिये । बडी सजधजके साथ सौधर्मेन्द्र भी आया एवं और सब देव भी आये । सवोने मिलकर बड़ा भारी आनंदोत्सव मनाया । आखिर सौधर्मेन्द्रकी आज्ञा से शचीने महाराणी ब्रह्मदत्ताको निद्राके वशीभूत कर दिया और एक मायामई वालक उनके पास लिटाकर वह बालक भगवानको इनके पास ले आई । इन्द्र अनुपम बालकको देखते ही गढ़द होगया । उनके अपूर्व रूप लावण्यको ढो आंखों से ही देखकर वह तृप्त न हुआ बल्कि अपनी तृष्णाको मेटने के लिये उसने अनेक कृत्रिम नेत्र बनाकर बालक - भगवान के दर्शन किये और उनकी विशेष रीतिसे स्तुति की। उपरान्त भगवानका जन्माभिषेक करनेके लिये वह सुमेरुगिरि पर्वतपर लेगया । वहाके यांडुकवनमें रत्नजटित शिलापर भगवानको विराजमान किया और क्षीरसागरका निर्मल जल देवद्वारा मंगवाकर उसने भगवानका अभिषेक १००८ कलशोद्वारा किया । उस समय अद्भुत उत्साह चहुओर दृष्टि पड़ने लगा । सव ही सुरागणाएं जयजयकार करने लगीं !एक कोलाहलसा मच गया ! जैन कवि भगवानके अभिषेक संबंध कहता है कि
जा वारासो' गिरिसिखर, खट खड हो जाप । सो धारा जिन देहवे, फूलकली सम थाय ॥ अप्रमान वीरज वनी, तीर्थेवर प्रभु होय | वार्षे तिनकी सकति, उपमा लौ न कोय ॥ नीलवरन प्रभु देहपर, क्लम-नीर छवि एम । नीलाचल सिर हेमके, बादल वग्मे जेम ॥ चली के नीर्खा, उछल छटा नभ माहि
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