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भगवानका शुभ अवतार !
किक बातें भी धर्मात्माके निकट अपनी अलौकिकता खो बैठती हैं। तीनो लोकोंमें कोई ऐसी वस्तु नही है जो धर्मसे बढ़कर हो और उसकी आराधनासे वह मिल न सके ! और न ऐसा कोई कार्य है जो धर्म-प्रभावसे सुगम न होजाय । भौतिकवादके वर्तमानकालमें रहते हुये साधारण मनुष्योंके लिये अवश्य ही यह सब आश्चर्य भरी बातें हैं, परन्तु जिसे आत्माकी अनन्त शक्तिमें विश्वास है, उसके लिये यहां विस्मयको कोई स्थान ही शेष नहीं है । देव भी कोई विशेष पुण्यवान जीव है, यह आज पाश्चात्य भौतिकवादी भी स्वीकार करने लगे है । ब्राह्मण और बौद्धग्रन्थ भी प्राचीनकालमे यहां देवोंके आगमनका वर्णन करते मिलते है। इस दशामे जैनशास्त्रोंके उक्त कथनमें विस्मय करना वृथा ही है । अस्तु !
एकदा राजदरबार लगा हुआ था । मंत्री, सेनापति, रानकर्मचारी और सब ही दरबारी अपने२ स्थानपर बैठे हुये थे । राजा विश्वसेन भी राज्यसिहासन पर विराजमान थे, राज्यछत्र लगा हुआ था, चवर ढोले जारहे थे। इसी समय अन्तःपुरवाले मार्गकी
ओरसे जय-जयकारका घोष सुनाई दिया। देखते ही देखते परिचारिकाओसे वेष्टित महार णी ब्रह्मदत्ता वहां आती हुई दिखलाई दी । दरबारियोंने यथोचित रीतिसे महाराणीका स्वागत किया और राजा विश्वसेनने बडे आदरसे उन्हें अपने पास आधे आसनपर बैठा लिया। सचमुच उस समय दरवारी तो ऐसे मालूम होते थे जैसे तारे हो और राजा विश्वसेन उनमे चाद सरीखे थे, तथापि महाराणी उनके बीच चंद्रिकाके अनुरूप विकसित हो रहीं थीं। इस अवसर पर सब ही लोग उत्सुकतासे महाराणीके