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५०] भगवान पार्श्वनाथ ।। क्रमकर ही पहुची होगी। क्राति एकदम उठ खड़ी नहीं होती। जब मामाजिक अत्याचार चर्मसीमाको पहुंच जाता है, तब ही वहां क्रांतियां प्रगट होने लगती हैं । म० वुद्धके समयमें एक सामाजिक क्राति ही उपस्थित थी। इसलिए भगवान पार्श्वनाथके समयमें सामानिक अत्याचारोकी भरमार होना प्राकृत संगत है।
स्व०मि० दीसडेबेडिस साने वौद्धकालीन सामाजिक व्यवस्थापर प्रकाश डालते हुए लिखा था कि " ऊपरके तीनवर्ण मूलमें प्रायः एक हो रहे थे; क्योकि विप्र और क्षत्रियपुत्र एक तरहसे तीसरे वैश्य वर्णमेंके वह व्यक्ति थे जिन्होंने अपनेको सामाजिक वातावरणमें उच्चपद पर पहुचा दिया था। और यद्यपि जाहिरा यह कार्य कठिन था, तो भी यह संभव था कि ऐसे परिवर्तन होवें। साधारण स्थितिक मनुप्य गजपुत्र बन जाते थे और दोनो ही ब्राह्मण हो जाते थे। ग्रंथोमें इस प्रकारके अनेक उदाहरण मिलते हैं। सुतग ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं-स्वयं विप्रोंके क्रियाकाण्डके ग्रंथोमें-कि जिनमें हरप्रकारकी मामाजिक परिम्यतिके स्त्री पुरुषोंका परम्पर पाणिग्रहण हुआ हो । यह संवघ केवल उच्चवर्णी पुरुष और नीच न्यायोंके ही नहीं है, बल्कि विलकुल बरअक्स इसके अर्थात् नीच पुरष और उच्चवर्णी स्त्रीके विवाह संबंवके भी हैं।''
वान्तवम विवाह क्षत्र भी उस समय इतना सीमित नहीं था जितना कि थान वह सकीर्ण बना लिया गया है। आन तो अपनी
जानिमें भी नहीं, बल्कि वश्य जातिके भी नन्हें नन्हें टुकड़ोंमें ही र बटर दिया गया है। आज यदि कोई जनी अपने ही
-देनी बुदिस्ट टन्टिया पृट ....!