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४८] भगवान पार्श्वनाथ । गर्भाधानकी प्रवृत्ति देखी जाती है । इसलिए मनुप्रोमें गाय और घोड़ेके समान जातिका किया हुआ कुछ भेट नहीं है। यदि आलतिमें कुछ भेद हो तो जातिमें भी कुछ भेद कल्पना किया जामक्ता है ॥४९०-४९२॥ जिनकी जाति, गोत्र, कर्म आदि शुक्लध्यानके कारण है वे उत्तम तीन वर्ष कहलाते है और बाकी सब द्र कहलाते है ॥४९३॥ ... इस प्रकारके वचनों द्वारा उस श्रावकने जाति मृढता भी दूर की ।" (पं० लालारामजी द्वारा अनुवादित व प्रकाशित "उत्तरपुराण" पृष्ट ६२६-६२७)
इससे स्पष्ट है कि भगवान पार्श्वनाथके समयमें जाति मृढ़तामें पड़े हुये लोग ब्राह्मणपने और क्षत्रियपने आदिके नशेमे चूर थे। उनके इस मिथ्याशृद्धानको दूर करनेका प्रयत्न जेनी विद्वान किया करते थे । आजकल भी जातिमूटता भारतमे बढी हुई है। भारतीय नीच वर्णके मनुष्योंको मनुष्य तक नहीं समझते । उनको घृणाकी दृष्टि से देखते है । हत्माग्यसे आनके जैनी भी इसी प्रवृत्तिमे वहे जा रहे है । वह अपने प्राचीन पुरुषोंकी भाति भारतीयोकी इस जातिमूढताको मेटने में अग्रसर नहीं है । सचमुच प्राकृत रीतिसे ही
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१-तस्य पाखण्डिमौट्य च युक्तिभिः म निराकृत ।
गोमास भक्षणागम्यगमार्थ पतिते क्षणात् ॥ ४९० ॥ वर्णाकृत्यादि मेदाना देहेस्मिनच दर्शनात् । ब्राह्मण्यादिषु शूद्रोद्यगर्भाधान प्रवर्तनात् ॥ ४९१ ।। नास्ति जातिकृतो भेदो मनुष्याणा गवाश्ववत् । आकृति गृहणात्तस्मादन्यया परिकल्पते ॥ ४९२ ॥ जाति गोत्रादि कर्माणि शुक्रयानस्य हेतव. । येपुतेस्युत्नयो वर्ण शेपा अवाप्रकीर्तिता ॥४९॥इति गुणभट्टाचार्य ।।