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५६] भगवान पार्श्वनाथ। प्रारुतमें अपना उपदेश दिया था। भगवान पार्श्वनाथ और महावीर स्वामीके गणघरोंने अईमागधी प्राकृतमें उनकी द्वादशांग वाणीकी रचना की थी तथापि मक्खालिगोशालके ग्रन्थोंकी भाषा एक अन्य ही प्राकृत थी। सचमुच उस समयको सर्वसाधारण लोगोकी दैनिक बोलाचालकी भाषा जिसको कि हरकोई सुगमताके साथ समझता था और जो पश्चिममे कुरुदेशसे लेकर पूर्व में मगध तक, उत्तरमें नेपालको तराईमे श्रावस्ती और कुशीनारा तक और दक्षिणमे एक ओरको उज्जैन तक वोली जाती थी, अवश्य ही सस्कृत नहीं थी। साहित्यक (elas-1cal) सस्कृतका जन्म भी शायद उस समय नहीं हुआ था। सुतरा एक तरहसे तक्षशिलासे लेकर चम्पा तक कोई भी संस्कृत नहीं बोलता था। केवल प्रारुन भाषाओकी ही प्रधानताथी, जोकि आजतक जैनधर्म और बौद्ध धर्मकी मुख्य भाषायें है।
उस समय जब कि भगवान पार्श्वनाथका जन्म होनेवाला था तब मनुप्योंमें केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ही भेद थे। इनके अनेकानेक प्रभेद दिखाई नहीं पडते थे. जैसे कि आज एक एक वर्ण अथवा जाति अनेक उपजातियोमें घटी हुई दिखाई पड़ती है। उस समयके लोग इन चार वर्णोको संभाले हुए थे, परन्तु विप्रोंके जातिमदसे इनमें जो परिवर्तन उपरान्तको होने लगे थे, उनका दिग्दर्शन हम कर ही चुके है। वास्तवमें अपनी आजीविकाको बदल कर हरकोई अपना वर्ण परिवर्तन भी करसक्ता था। उस समयके लोग अपने दैनिक जीवन में नाम सज्ञा भी विविध
1-आजीविन्म भाग 1 पृ० ८.१२-बुद्धिस्ट इन्डिया पृ० १५ । 3-पत्र पुस्तक पृ० २११ ।