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तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति। [७५ इसतरह जाहिरा हमें इन मंत्रोंसे जैनधर्मका संबंध झलक जाता है।
अब जरा इनके मंत्रोंको भावार्थमें ग्रहण करके देख लीजिए कि वह क्या बतलाते हैं ? इनके मन्तव्य ऋग्वेद मंत्र १०।१२९ मे दिये हुये हैं । पर हम यहांपर मि० बारुआके उल्लेखोके अनुसार विचार करेंगे। सबसे ही पहले परमेष्टिन्ने जो · सिद्धान्त ' ( Philosophy ) का स्वरूप बतलाया है, वह दृष्टव्य है । वे कहते हैं कि 'सिद्धान्त कवियोंकी आभ्यन्तरिक खोजका परिणाम है जो वे सत्तात्मक और असत्तात्मक वस्तुओंके पारस्परिक सम्बन्धको अपने विचार द्वारा जाननेके लिये करते हैं।" जैनधर्ममें भी सिद्धान्तके स्वरूपको ऐसे ही स्वीकार किया गया है। वहां सिद्धान्तकी उत्पत्ति ऋषभदेव द्वारा ध्यानमग्न होकर विचार-तारतम्यकी परमोच्च सीमामे-केवली दशामें पहुंच करके होने का उल्लेख है। वहां सिद्धान्तको किसी परोक्ष ईश्वर आदिकी कृति नहीं मानी है, बल्कि यही कहा है कि मनुष्य जब ध्यानद्वारा अपनी विचार-दृष्टिको बिल्कुल निर्मल बना लेता है तब उसके द्वारा सैद्धान्तिक विवेचन प्राकृतरूपमें होता है। परमेष्टिनका भी भाव यही है; यद्यपि वह पूर्ण स्पष्ट नहीं है।
प्रजापति परमेष्टिनके समयमें कहा गया है कि दो तरहके.
1-प्री-बुद्धिस्टिक इन्ड० फिला० पृष्ट ६-" Prajapati Farmesthin seems to speak of philosophy as search carried on by the Poets within their herit 102 discovering in the light of their thoughi the relation of existing things to the non-evatent. (hig. X. 192, 4 सतोवघृन असति ).