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१०६] भगवान पार्श्वनाथ । मिल गये थे। धर्मके साम्राज्यमे भला कमी किस बातकी रह सक्ती है ! वहां तो स्वय त्रिलोकपूज्य तीर्थकर भगवानका शुभागमन हुआ था ! क्षेत्रके भाग्य खुल गये थे ' उसका नाम दुनियाके कोने में फैल गया था । सो भी तवहीके लिये नहीं बल्कि अनन्तकालके लिये आज भी भारतीय काशीधाममा नामोच्चारण करके अपनेको वन्य समझते हैं।
ईसवीसन् ६२९ और ६४४के मध्यवर्ती समयमें इस देशका पर्यटन करने ह्यूनत्सांग नामक एक चीन देशका यात्री आया था। सारे भारतका उसने परिभ्रमण किया था और पवित्र काशीराजके भी उसने दर्शन किये थे। इस पावन-स्थानको उसने उस समय तीन मील लम्बा और एक मील चौड़ा गंगाके पश्चिम तटपर स्थित बतलाया था।
इस मव्य नगरमे उस समय राजा विश्वसेन राज्य करते थे। यह इक्ष्वाकवंगीय काश्यप गोत्री महान् क्षत्री थे। वडे ही धीरवीर और गंभीर प्रजापालक नृप थे। वलवान, सुंदर सौम्य शरीरके धारक दूसरे कामदेव ही जान पड़ते थे। जैनाचार्य इनके विषयमे कहते हैं कि ---
“तत्पतिर्विश्वसेनाख्योप्यभूद्विश्वगुणकभृः । काश्यपाख्यसुगोत्रस्थ इन्वाकुवशखा शुमान् ॥३६॥ सशशी चकलाधारस्तेजम्बी भानुमानिव । प्रभुदिइवाभीष्ट फलद कल्पगाखिवत् ॥ ३७ । जिनेन्द्रपादमसत्तो गुरुसेवापरायण ।
धर्माधार सदाचारी रूपेण जितमन्मथ ॥ ३८ म १-कनिंघम, जारागफी ऑफ ऐन्शियेण्ट इन्डिया 'नया' पृ. ४९९ ।