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तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति। [८७ विवाह द्वारा संभव था । विवाह विना वे मनुष्यका 'मिट्टीमें मिलना
और गारत होना' मानते थे। ऐतरीय और तैतरीय कालमें भी इस मान्यताकी प्रधानता रही थी। सब ही वेदानुयायियोके निकट,(१) वैदिक साहित्यका अध्ययन करना, (२) वैदिक रीतिरिवाजोंका पूर्ण पालन करना, (३) पारम्परीण धर्ममें किचित् उन्नति करना, (४) देवताओ
और पित्रोंकी पूजा करना एवं (५) विवाह करना मुख्य कार्य रहे हैं। यज्ञ करने, पंचाग्नि तपने और विवाह करनेपर वे भगवान् पार्श्वनाथके समय तक जोर देते रहे थे। यद्यपि आसुरीने भगवान् नेमिनाथके उपदेशके प्रभावानुसार इस श्रद्धानमें किंचित फेरफार भी किया था, परन्तु वह भी मूलभावसे विचलित नही हुआ था। सारांश यह कि वेदानुयायी ऋषियोंने गृहस्थ जीवनका नियमित उपभोग करना बुरा नहीं माना था और हठयोगको भी बेढब बढ़ाया था। ब्रह्मचर्यसे तो वह बुरी तरह भयभीत थे। ब्राह्मण ऋषि बौद्धायन और वशिष्ठने स्पष्ट कहा था कि पुत्र द्वारा मनुष्य संसारपर विजय पाता है; पौत्रसे अमरत्व लाभ करता है और प्रपौत्रको पाकर परमोच स्वर्गको प्राप्त करता है। इसी लिए एक ब्राह्मणका जन्म तीन प्रकारके ऋणोसे लदा हुआ होता बतलाया गया है। अर्थात् छात्रावस्थाका ऋण तो उसे ऋवियोको देना होता है: यज्ञोको करके देवताओंके ऋणसे वह उऋण होता है और एक पुत्र द्वारा वह ससृति (Annes) को संतोषित करता है।
जैनोके 'उत्तरपुराण'मे भी वैदिक ऋषियों के इस धर्म विकाश १-पूर्व० पृ० २४९ , २-पूर्व पृ० २४६ । ३-ए हिस्ट्रीऑफ प्रीबुद्ध० इन्ड फिला० पृ० २४७ । ४-वौद्धायन २१९/१518, वशिष्ट १७१५.