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तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति ।
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तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति ! " कश्चिद्विप्रसुतो वेदाभ्यास हेतोः परिभ्रमन । देशांतराणि पाखंडिदेवतातीर्थजातिभिः || ४६६ ॥ लोकेन च विमुह्याकुलीभूतस्तत्प्रशंसन । तदाचारितमत्त्युच्चैरनुतिष्ठन्नयेच्छया || ४६७ || "
- उत्तरपुराण । एक मनुष्य आकुल व्याकुल हुआ दृष्टि पड रहा है । कपिरोमा बेलके पत्ते अब भी उसके हाथमें है । वह रह रहकर अपने सारे शरीरको खुजालता है । खुजलीके मारे वह घबड़ाया हुआ है । देखने में सुडौल - सौम्य - युवा है । उसका उन्नत भाल चन्दन चर्चित है । सचमुच ही वह एक ब्राह्मण पुत्र है, परन्तु इसतरह यह बावला क्यों बन रहा है ? कपिरोमा बेलके पत्ते इसके हाथमें क्यों है ? रहरहकर अपनी देहको वह क्यो खुजला रहा है और खिजाई हुई दृष्टिसे वह अपने साथीकी ओर क्यो घूर रहा है ?
इन सब प्रश्नोका ठीक उत्तर पानेके लिये, पाठकगण जरा भगवान महावीरजीके समवशरणके दृश्यका अनुभव कीजिए । अनुपम गंधकुटीमें सर्वज्ञ भगवान अंतरीक्ष विराजमान थे । मृर्त, भविष्यत्, वर्तमानका चराचर ज्ञान उनको हस्तामलकवत् दर्शता था । सामने रक्खे हुये दर्पणमें ज्यो प्रतिबिम्ध साफ दिखाई पड़ता है उसी तरह परमहितू - रागद्वेष रहित - वीतराग भगवान के ज्ञानरूपी दर्पण में तीनो लोकका त्रिकालवर्ती विम्ब स्पष्ट नजर पड़ रहा था ! कोई बात ऐसी न थी जो वहां शेष रही हो । उन