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उस समयकी सुदशा। [४१ * जातिका मद करना वृथा है। ब्राह्मण जैसे उत्तम वर्णमे जन्म लेकर
भी अपने नीच आचार द्वारा एक व्यक्ति महापतित और नीच होता हुआ देखा जाता है । तथापि एक नीचवर्ण उच्चवर्णके साथ सम्बन्ध करके अपने आचरण सुधारता भी इसलोकमे दिखाई पड़ता है । यही बात एक अन्य जैनाचार्य स्पष्ट प्रकट करते हैं। अतएव जातिका घमण्ड किस विरतेपर किया जाय ! उप्त प्राचीनकालमें जातिमदका भूत लोगोंके सिरसे उतारनेका प्रयत्न नी करते थे
और उस समय भी यह मद लोगोको खूब चढ़ा हुआ था, यह बात जैन ग्रन्थोंके उक्त उद्धरणसे स्पष्ट है । ऐतिहासिक दृष्टिसे भी यह कथन सत्यको लिये हुए प्रगट होता है । म० बुडके समयका जो विवरण हमको मिलता है, उससे कुछ विभिन्न दशा कुछ वर्षों पहले नही होसक्ती है और वास्तवमे जो सामाजिक दशा म० बुद्धके समयमे बताई गई है वह, जरूर ही उस अवस्थाको क्रम १-एकोदूरात्यजतिमदिरा ब्राह्मणत्वाभिमानादन्यः शूद्र स्वयमहमितिस्नातिनित्यंतथैन । द्वावप्येतोयुगपदुदरानिर्गतौशूद्रिकाया शूद्रोसाक्षादपि
च चरतो जातिभेद भ्रमेण ॥ १ ॥३॥ -श्री अमितगतिः वर्तमानकालके दिग्गज विद्वान् स्याद्वादकेसरी, न्याय वाचस्पति स्व० पं. गोपालदासजी वरैयाने भी शास्त्राधारोसे यही मत प्रगट किया है । वे अपने एक लेखमें, जो 'जैनहितषी' भा० ७ अक ६ (वीर नि. सं० २४३७ ) में प्रगट हुआ है स्पट लिखते हैं कि, "ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्णोके वनस्पतिभोजी आर्य मुनि धर्म तथा मोनके अधिकारी है म्लेच्छ और शब्द नहीं है . परन्तु म्लेच्छों और शूद्रोंके लिये भी सर्वमा मार्ग वन्द नहीं है । क्योंकि त्रस जीवोंकी सक्ल्पी हिंगासे आजीविकाका त्याग करनेसे कुछ कालमें म्लेन्छ आर्य होसत्ता है और शूद्रकी आजीविकाके परिवर्तनसे गद द्विज होसत्ता है । दयादि ।"
त्याहादकेसरी
अपने एक लेल याने भी
वैश्य इच्छ और अ। क्योंकि बस जय होता