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आनन्दकुमार। [२९ अपने अवधिनान के बलमे अपने पूर्वभवका सब संबंध जान लिया!' पुण्य प्रभावका यह प्रत्यक्ष उदाहरण देखकर वह फिर भी जिनेन्द्र भगवानकी पूजन अर्चनामें तल्लीन होगया ! यहां उत्पन्न होने के कुछ काल बाद ही वह यौवन अवस्थाको प्राप्त होगया और आनंदमे अनेक तीथों में जानाकर जिनेन्द्र भगवानकी वन्दना, स्तुति आदि रहे भावोसे करने लगा। धर्मतरुको खूब अच्छी तरह सीचने लगा।
इधर वह भील हिमाकर्ममे रत रहा, मुनिराजकी हत्या करने सदृश महापापके वशीभूत हो वह रुद्रध्यानसे मरा और मरकर सर्व आतम नमें जाकर पहा । वहांपर वह नानाप्रकारके अनेकानेक महा दुख भुगतने लगा-अधर्मका कटफल उसे यहा चखना पड़ा। सचमुच दहियोंके आधीन हआ जीव वृथा ही दु.खी होता है। विषयलम्पटी कमठ अपने घोर पापकी बदोलत बराबर दुःख ही. उठाता फिरा ! अतएव.
'विकविक विषयकपायमल, ये बैरी जगमाहि । ये ही मोहित जीवको, अवसि नरक ले जाहि ॥ धर्म पदारथ वन्य जग, जा पटतर कछु नाहि । दुर्गनिवास वायके, धरै सुरग शिव माहि ॥"
आनन्दकुमार । "जिनपूजाकी भावना, सब दुखहरन उपाय। करते जो फल संपजै, सो वरन्यौ किम जाय ॥"
वसन्त ऋतु अपनी मनमोहक मुस्कान चारोतरफ छोड रही था। वनलतायें और दिशा-विदिशायें फूले अंग नही समाती थी।