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आनन्दकुमार। [३५ राजा आनन्दकुमार विपुलमती मुनिराजके मुखारविन्दसे जिन पूजाके महत्वको सुनकर दृढ़ श्रद्धानी होगया और उसने उन मुनिराजसे तीनो लोकके जैन मंदिरोका भी वर्णन सुना। वह प्रतिदिवस सर्वही स्थानोके जिन चैत्योंको परोक्ष नमस्कार करने लगा। सूर्यदेवके विमान में भी जिनचैत्य उसे बताए गए थे, सो वह सांझसवेरे छत्तपर चढ़कर सूर्यकी ओर लक्ष्य करके वहांके जिनचैत्योको अर्घ चढ़ाया करता था। राजाकी इस क्रियाको देखकर साधारण जनता भी वैसी ही क्रिया करने लगी। कहते है तबहीसे 'भानु उपासक ' लोगोका संप्रदाय उत्पन्न होगया, सूर्यदेवकी पूजा होने लगी, सूर्यमंदिर बनने लगे। इन सूर्यमंदिरोका पता जबतब भारतके प्राचीन खण्डहरोंसे होजाता है । काश्मीरमे एक सुन्दर सुर्यमंदिर अब भी भग्न दशामे अवशेष है। .
इस प्रकार बड़े भावसे जिनपूजा करता हुआ राजा आनन्दकुमार राज्यप्रबध कररहा था कि अचानक इसकी दृष्टिमें एक सफेद बाल आगया । सफेद बालने उसे बिल्कुल सफेद ही बना दिया ! वह संसारसे विरक्त होगया-अपने ज्येष्ठ पुत्रको राज्यभार सौपकर उसने सागरदत्त मुनिराजके समीप जिनदीक्षा ग्रहण करली ! पंचमहाव्रतोको धारण करके वह भव्य जीव विशेष रीतिसे बाह्याभ्यंतर तपश्चरण करने लगा। विविध प्रकारके परीषहोको समभावसे सहन करने लगा । वह राजर्षि शास्त्राभ्यासमें उत्तचित्त रहते, निर्मल भावोसे दशलक्षण धर्म और सोलहकारण भावनाओका चितवन करते थे । इन भवतारण सोलहकारण भावनाओके भानेसे आपके त्रिलोकपूज्य तीर्थकर कर्मका बंध बंधगया । उन्हें अनेक प्रकारकी