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उस समयकी सुदशा ।
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व्यापारकी अभिवृद्धि और दक्षिणभारतका दिग्दर्शन स्पष्टरीतिसे होता है । कहा गया है कि जब चारुदत्तने अपना सब घन वेश्याको खिला दिया, तब वह अपने मामा के साथ धन लेकर चम्पासे उलूखदेश के उशिरावर्त नामक शहर मे पहुंचा था । यहांसे कपास खरीदकर वह ताम्रलिप्त नगरको संभवतः उपर्युल्लिखित दूसरे मार्ग से गया था । रास्ते में भयकर वनीमें आग लग जाने से इनकी सारी कपास नष्ट होगई थी । वहांसे यह पवनद्वीपको गए थे, परन्तु लौटते समय दुर्भाग्य से इनका जहाज नष्ट होगया और यह समुद्रके किनारे लगकर किसी तरह राजगृह पहुंचे। वहां एक उज्जैनीका वणिक्पुत्र इनको मिला था जिसने सिहलद्वीप में व्यापार निमित्त जाकर धन नष्ट कर आनेवाली अपनी दुःखभरी कहानी कही थी । यहांसे यह दोनों व्यक्ति रत्नद्वीपको धन कमानेके लिए चल पड़े थे । यहां इनको जैन मुनिका समागम हुआ था । यह सिहलद्वीप और रत्नद्वीप विद्वानोने लका बतलाये है । सिहल और रत्नद्वीप उसीके नाम थे । इस प्रकार इस कथा में भी दक्षिण भारतके लम्बे छोरतक व्यापारियों के जानेका उल्लेख हमें मिलता है ।
यह संभव है कि साधारण पाठक उपरोक्त जैन कथाओके कथनपर सहसा विश्वास न करे, परन्तु इसके लिए हम अन्य श्रोतों से भी इस बातको प्रमाणित करेंगे कि दक्षिणभारत मे जैनधर्मका अस्तित्व बहुत पहलेसे रहा है और जैनोको वहाका परिचय भी उतना ही पुराना है । प्रोफेसर एम० आर० रामास्वामी अय्यगरने राजावली कथेका विशेष अध्ययन किया है और उसके कथनको उन्होंने सत्य १ - आराधना कथाकोप भाग २ पृ० ८२-८६ ।