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__ २८ ] . भगवान पार्श्वनाथ । कौड़ीकी तरह उसे नि संकोच भावसे पैरोंसे ठुकरा दिया और घोर तपश्चरण करने लगे। सदा आत्मध्यानमें लीन रहने लगे। अपने मनुष्य जन्मको सफल बनाने लगे। ___एक रोज राजर्षि वजनाभि कायोत्सर्ग एक वनमें विराजमान थे, कि इनके पूर्वभवका वैरी मठका जीव वहां आपहुंचा | कमठका जीव अजगर जो मरकर छठे नर्कमें गया था वह वहांसे निकल कर किसी पुण्य संयोगसे नर जन्ममें तो आया. पर कुरंग नामक हिसक भील हुआ। सचमुच जीवोंके किये हुये शुभाशुम कर्म अपना प्रभाव स्वत ही उचित समय पर दिखाते है | भगवान पार्श्वनाथनीके इन पूर्वभवोंके वर्णनसे कर्मके विचित्र परिणामका खासा दिग्दर्शन होनाता है । वर-बंधके कारण यह कुरंग भील राजर्षिको देखते ही आगबबूला होगया। राजर्षि तो शत्रुमित्रमें समभावको धारण किए हुए थे। उनके निकट उसके कोपका कुछ भी प्रभाव नहीं था. परन्तु यह नीच काहेको माननेवाला था। धनुष-बाण हाथमें लिये हुये था । चटसे वाण धनुपपर चढ़ा लिया और भरताकत खींचकर योगासीन मुनिराजके मार दिया ! मुनिराजने इस दुःखदशामें भी धर्मव्यानको त्यागा नहीं बल्कि उपसर्ग आय जानकार उनने विगेप रीतिमे आत्मममाधिमें दृष्टिको लीन क दिया । इम उत्तम दगामें उनके प्राणपखेरू निकलकर मध्यम ग्रेवे. यक विमानमें पहुंचे। वहां चे अहमिन्द्र हुये और विशेष रीतिसे आनन्दमुख भोगने लगे।
पहले वहा पहचकर उत्पाद से जसे उठने ही वह भ्रममें पड़ गए कि यहा मैं कैसे आगया ? यह कौन स्थान है ? इतनेमें ही