________________
चक्रवर्ती बज्रनाभि और कुरंग भील। [२७ अपने विशद साम्राज्य और अतुल संपदाको कौडीके मोल बराबर समझने लगे। छयानवे हजार सुन्दरसे सुन्दर रानियां भी उनके दिलको अपनी ओर आकर्षित न कर सकी। पूरा वैराग्य उनके दिलमें छा गया, सारा संसार उनको असार दीखने लगा। राजभोग भोगते जहां सार ही सार नजर आता था, वहां अब उन्हें कुछ , भी सार न दिखाई पड़ता था । लौ लगी थी शाश्वत सुख पानेकी इसलिए उनकी भ्रमबुद्धि उसी तरह भाग गई जिस तरह सूरजके निकलते ही अंधकार भाग जाता है । वस्तुओका असली स्वरूप उनकी नजरमे आ गया। वे विचारने लगे:
' इस ससार महावन भीतर, भ्रमते ओर न आवे । जामन मरन जग दो दाझ्यो, जीव महादुख पावे ॥ कव ही जाय नरकथिति भुजै, छेदन भेदन भारी । कव ही पशु परजाय धरै तह, वध बधन भयकारी ॥ सुरगतिमे पर सपति देखै, गग उदय दुख होई । मानुप जोनि अनेक विपतिमय, सर्व सुखी नही होई ॥" " मोह उदय यह जीव अग्यानी, भोग भले कर जाने । ज्यों कोई जन खाय धतूरो, सो सब कचन माने ॥ मै चक्री पद पाय निरतर, भोगे भोग घनेरे । तोभी तनिक भये नहीं पूरन भोग मनोरथ मेरे ॥ सम्यग्दरसन ग्यान चरन तप, ये जियके हितकारी ।
ये ही सार, असार और सब, यह चक्री चित धारी ॥"-पार्श्वपुराण
चितमें दृढ़ता धारण करके सम्राट्ने अपने पुत्रको राज्य भार सौंपा और आप अनेक राजाओंके साथ निःशल्य होकर मुनि हो गये। गुरु चरणोंके निकट जैनमुनिके पंच व्रतोंको धारण कर लिया। अपनी अलौकिक विभूतिका जरा भी मोह नहीं किया। कानी