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३२] भगवान पार्श्वनाथ । उपादेय है । उसको मेटना अश्रद्धानको जन्म देना है । अज्ञानांधकारको मेटनेके लिए विवेकमयी स्वतंत्र विचाररूपी सूर्य ही साम
र्थ्यवान है। राजा आनन्दकुमारने स्वतंत्ररीतिसे विचार किया कि पाषाणकी मूर्ति किस तरह हमे पुण्यकी प्राप्ति करा सक्ती है? इसीसे उनको इस बातका अवसर मिला कि वह देवपूजाका सच्चा स्वरूप मुनिरानसे जानकर अपने सम्यक्त्वको दृढ़ करलें। यदि वे चुपचाप रूढ़िवत भगवदपुजन करके चले आते, तो उनका अज्ञान दूर न होता! इसलिए स्वाधीन रीतिसे तत्वोका विवेचन करना बुरा नहीं है-पर वहां सबी अन्वेषक बुद्धिका होना जरूरी है, इस बातका ध्यान अवश्य रखना चाहिए ।
मुनिराजने राजाका समाधान कर दिया, बतला दिया कि जीवके शुभाशुम भाव कारण पाकर उत्पन्न होते है और उससे ही. पुण्य, पाप बंध होना है। जिस तरह स्फटिक पाषाणमें कुसुम वर्णका ढक लगानेसे उमकी द्युति अरुणश्याम होनाती है। उसी तरह जीवकी बात है । उपमें शुमाशुभ भावकर्मके अनुपार अंतर पड़ जाता है । इघर जिन प्रतिमा शुभ भाव उत्पन्न करने का कारण है ही ! क्यों के श्री जितेन्द्र भगवानकी वीतराग मुद्रा निरखिकर उन भगवान के दिव्य जीवनका स्मरण ही पुनकको आता है। और पुण्यात्मा महापुरुषों के पवित्र जीवनोका स्मरण हो आना भावोंको शुम रूप करनेके लिये अवश्य ही कार्यकारी होता है | इसलिए इस शुभभावके उत्पन्न होनेसे जिनदेवका पूनन पुण्यबंधका कारण है। देसे अवश्य ही जिनेन्द्र भगवानकी मूर्ति जड़ पापाग है-रामहेपने रहित, अमल और मुख दुखकी दाता नहीं है । वह दर्पण