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राजर्षि अरिविंद और वनहस्ति। [२१ ' (१५) मार्गप्रभावना-मोक्षमार्ग अर्थात् जैनधर्मकी प्रभावना करना; और
(१६) प्रवचनवत्सलत्व-मोक्षमार्गरत साधर्मी भाइयोंके प्रति वात्सल्यभाव रखना।
इन्हीं सोलह नियमोंका पूर्ण पालन मरुभूतिकी आत्माने अपने नौ जन्मान्तरोंमें करलिया था, जिसके ही प्रभावसे वह परमोच्च तीर्थकरपदको पहुंचा था-साक्षात् परमात्मा भगवान पार्श्वनाथ हुआ था। बात यह है कि इसलोकमें एक सूक्ष्म पुद्गल वर्गणायें भरी पड़ी हैं, जो जीवात्माके शुभाशुभ मन, वचन, काय क्रियाके अनुसार उसमें आकर्षित होती रहती हैं । जीवात्माका सम्बन्ध इस पुद्गलसे अनादिकालसे है और वह निरतर मन, वचन, कायकी शुभाशुभ क्रियाके अनुसार बढ़ता रहता है। उस समयतक यह क्रम जारी रहता है जबतक जीवात्मा जो, स्वभावमें चैतन्यमई है, इस पौगलिक सम्बन्धसे अपना पीछा नहीं छुड़ा लेता है। इस सनातन नियमका खुलासा परिचय पाठकगण अगाड़ी पायेंगे, परन्तु यहांपर यह ध्यानमें रख लेना उचित है कि इसी नियमके बल मरुभूतिका जीव अपने अशुभ मन, वचन, काय योगके परिणाम स्वरूप दुर्गतिमें गया और पशु हुआ था किंतु उसी अवस्थासे धर्मका आराधन जन्मान्तरोंमें करते रहनेसे वह उत्तरोत्तर उन्नति करता गया और आखिर वह इस योग्य बन गया कि पौगलिक संसर्गका बिल्कुल अन्त कर “सका ! इससे कर्मसिद्धान्तका प्रभाव स्पष्ट होजाता है। अस्तु । - सहस्रार स्वर्गके स्वयंप्रम विमानमें मरुभूतिका जीव जो । आगामी चलकर जगतपूज्य २३वें तीर्थकर पार्श्वनाथजी हुआ था, कह