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राजर्षि अरिविंद और वनहस्ति। [१७ उनमेंका एक सुन्दर दृश्य आंखोंसे ओझल होगया । राजाको यह देखकर दुनियांकी सब चीजें अथिर जचने लगी। क्षणभंगुर जीवनको आत्म-कल्याणमें लगाना उन्होने इष्ट जाना। वह परम दिगंबर मुनि होगये । बारह प्रकारका घोर तपश्चरण तपने लगे । आत्मध्यानमें सदैव तल्लीन रहने लगे। उनके ज्ञानकी भी वृद्धि होने लगी। इसी अवस्थामें वे अरविदराजर्षि श्री सम्मेदशिखरजीकी वंदना हेतु संघ सहित जारहे थे, सो सल्लकी वनमे आकर ठहरे हुये थे। इसी समय उस मरुभूतिके जीव हाथीने इनपर आक्रमण किया था।
जिसका भला होना होता है, उसको वैसा ही समागम मिलता है । विल्लीके भाग्यसे छीका टूट पड़ता है । वज्रघोष हाथीके सुदिन थे कि उसे इन पूज्य रानर्षिके दर्शन होगए । हाथी विनयवान होकर इनके समक्ष खड़ा होगया। अपने पूर्वभवका सम्बन्ध याद करते ही उसने अपना शीश राजर्षिके चरणोमे नवां दिया ! सबका हित चाहनेवाले उन राजर्षिने इसकी आत्माके कल्याण हेतु उत्तम उपदेश दिया-बतलाया कि हिसा करने-दूसरेके प्राणोंको तकलीफ पहुंचानेसे दुर्गतिका वास मिलता है, क्योकि हिसा जीवोको दुःखकारक है । कोई भी जीव तकलीफ नहीं उठाना चाहता, इसलिए दूसरोंको कष्ट पहुंचानेके लिए पहले स्वयं अपने आप तकलीफ उठानी पड़ती है। फिर कही उसका अनिष्ट हो पाता है । इस. कारण यह हिंसा पापका घर है । इसका त्याग करना ही श्रेष्ठननोका कार्य है। क्रोधके बगीभूत होकर वन-हस्तीने अनेको जीवोंके प्राणोको कष्ट पहुंचाकर वृथा ही अघकी पोट अपने सिरपर धरली! - इसी हिसाहस, आर्मभाव, अपनी आत्माको हननेके कारण यही