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शान्ति और सौम्यता का तीर्थ-कुण्डलपुर
(श्री नीरज जैन) उत्तर भारत के जैन तीर्थ क्षेत्रों की कतिपय विशाल पर बीचों बीच बने एक विशाल जिन मंदिर में अवस्थित और मनोज्ञ मूर्तियों का उल्लेख करते समय कुण्डलपुर के दो हाथ ऊंचे सिंहासन पर विराजमान पाठ हाथ ऊँची पना. बड़े बाबा का नाम प्रमुख रूप से प्राता हैं सचमुच इतनी मनस्थ भव्य प्रतिमा है। मूर्ति का निर्माण लाल बलुत्रा अद्भुत प्रतिमा है यह कि जिसके दर्शन मात्र से- पत्थर की स्वतंत्र शिला पर हुवा है तथा उसका सिंहासन "मन शान्त भयो मिट सकल द्वन्द चाख्यो स्वातम दो पत्थरों को जोड़कर अलग से बनाया गया है। इस रस दुख निकन्द ।" रुपमावना की सार्थकता मृति पर मृतिलेख अथवा चिन्ह का प्रभाव होने से इसका अनुभूत होती है यह क्षेत्र मध्य प्रदेश के दमोह निर्माण श्राज भी विवादग्पद बना हुवा है कि यह मूनि किम जिले में (बीना-कटनी रेलपथ पर) दमोह स्टेशन में तीर्थकर की है। बीस मील दूर है दमोह से मोटर बसें चलती हैं और क्षेत्र सर्व प्रथम इस मूर्ति को प्रकाश में लाकर तथा इन्य पर सुन्दर तालाब एवं अन्य धर्मशालाओं की व्यवस्था होने मंदिर प्रादिका निर्माता कराकर उसे महत्व प्रदान करने से यात्रियों की यात्रा सुविधा पूर्ण एवं सुखद होता है। वाले भत्रों द्वारा विक्रमा सं० १७५७ (मन् १७०० ईस्वी)
इस क्षेत्र की प्राकृतिक सुषमा भी नयनाकर्णक है और में इस स्थान पर एक शिलालेख लगाया गया जिसमें इसे वातावरण को तीर्थानुकूल बनाने में महायक होती है। भगवान महावीर की मूर्ति कहा गया है। संभवतः सिंहासन गोल-कुबलाकार पति माला के बीचों बीच निर्मल जल के दो मिहों को दबकर उनकी इस मान्यता को बल मिला से मरा "वर्धमान सागर" नामका तरंगित सरोवर है। होगा इस क्षेत्र के अनन्य प्रचारक श्री रूपचंद बजाज, संभवतः पर्गत की कुण्डलाकार गोलाई ने ही क्षेत्र को तिलायपण्णत्ती के श्राधार से इस मूर्ति को अंतिम केवली कुण्डलपुर नाम दिया है। वर्तमान में यहाँ कुल अठ्ठावन श्रीधरस्वामी की मूर्ति मानकर इस क्षेत्र को सिद्ध क्षेत्र जिनालय हैं जिनका निर्माण पिछली दो शताब्दियों के मानते हैं। एक अन्य लेखक श्री रूपचन्द "रतन" ने अपने भीतर हुआ है परन्तु उनके भीतर पुरातत्त्व की महत्व पूर्ण लेख (नव भारत जबलपुर दिनांक ७.७.६३) में उसी प्राचीन सामग्री उपलब्ध है।
महावीर की मान्यता का पोषण किया है। मैंने स्वयं श्राज वर्तमान क्षेत्र से जगा हुवा रूक्मिणी मठ नाम का। से पद्रह वर्ष पूर्व उसे प्रचलित मान्यता के अनुसार सन्मति एक प्राचीन मंदिर है जो अब प्रायः रिक तथा क्षम्त प्राय की छवि मान कर ही लिखा थाहो चुका है पर्णत के पीछे लगभग दस मील दूर बरंट साधारण पत्थर नहीं, नामक ग्राम है जहां तालाब पर एवं यत्र-तत्र सर्वत्र यहाँ प्रशरण की एक शरण है यह, प्राचीनता के चिन्ह पाये जाते हैं तथा विश्वास किया जाता है इन्द्रादि बंद्य, देवाधिदेव, कि यही प्राचीन प्रतिमएं तथा अन्य ध्व'शावशेष उपलब्ध
सन्मति का समवशरण, है यह। हैं वे प्रायः सभी इन्हीं दो स्थानों से लाकर यहां लगाए
सन १९९५ में अखिल भारतवर्षीय विद्वत्परिषद के गए है यहाँ तक कि बड़े बाबा की विशाल प्रतिमा को
कटनी अधिवेशन में इस मतांतर के निणय हेतु एक उप स्वप्न द्वारा खोजकर एक वणिक द्वारा लाये जाने की जो समिति गठित की गई थी। इस समिति के विद्वान सदस्य किंवदन्ती इस स्थान के सम्बध में प्रचलित है, उससे भी। तथा समाज के उद्भट विद्वान प्रादरणीय पं० दरबारी लाल इसी बरंट प्राम की सम्बध्दता सिध्द होती है।
कोठिया ने इस प्रश्न पर अपना शास्त्र सम्मत मत देते हुए बड़े बाबा के नाम से ख्यात यही अतिशय युक्त विशाल अनेकान्त वर्ष के पृष्ठ ११५ पर एक लेख प्रकाशित जिन विम्ब इस क्षेत्र की मूल-प्रतिमा है। यह मूर्ति पर्वत कराकर यह सिद्ध किया था कि अन्तिम केवली श्रीधर