Book Title: Anekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 298
________________ माणिक चंद : एक भक्त कवि २७६ 'मोह' शत्रु ने तो भक्त के प्रात्म-धन का अपहरण कर सताप तथा उद्धार के लिए पातुरता भी स्पष्टत. द्योतित उमे चिर-मतप्त बना दिया है, इसीलिए उसे शीघ्र ही है। 'जिन' भगवान् की शरण लेनी पड़ी भक्त मारिणक की सबसे बड़ी विशेषता है 'जिन' के हे मेरी विनती सुनों जिन राय । प्रति अनन्यता । जिनेन्द्र की वीतरागता, ज्ञान, प्र-क्रोध, मोह शत्र निज धन हरि के मोहि रक कियो भरमाय। भ्रम विनाश १ तथा भय और दुःख को दूर करके प्रधमों मैं चिर दुःखो भयो भव-वन में सो कछ कहो न जाय । का उद्धार करने की प्रवृत्ति प्रादि ऐसी विशेषताएं है जिनके अधम उधारक शिव सुखकारक सुनि जस प्रायो धाय॥ कारण भक्त को उनके अतिरिक्त दूसरा देव सुहाता ही नही, प्रत. उसने अपने को मन, वचन व कर्म से केवल 'पतित-उद्धार' जिन भगवान् का विरद है । नीचाति जिनेन्द्र का शरणागत व अय देवों का उपेक्षी बतनीच व्यक्ति भी कर्म-शत्रु से तभी तक पीडित रहता है लाया हैजब तक जिनेन्द्र उसकी ओर प्रवृत्त नहीं होते। माणिकचद प्रभुजी तुम्हारो हो मासरो मोहि और किसी सौं काम नहीं 'जिन' भगवान् को अपने उद्वार की ओर प्रवृत्त कराने के तुम नाम रटत संकट ज़ कटत अधकर्म मिटत हैं ततछिन हीं लिए वैष्णव भक्तों के समान उनके विरद का भी ध्यान भयभंजन रंजन मुक्त वधू दुख करि रांजन केहरि तुमही दिला देते है तुम अधम उधारण नाम सही यह कोरति तिहुजग छाय रही प्रभु तोरी हजूरियाँ ठाढ़ो। भवसागर से प्रभु पार करो 'मानिक' मन-वच-तन शरण गही एजी मैने तारण तरण सुन्यौं छ विरद थारो गाढ़ो। एजी थारी अनुपम शान्त छवी पं कोटि रवि वारो। ___ आदर्श दास्य भक्तों को अपनी भक्ति के फल-स्वरूप एजी तुम बिन भव वन के माही सहो दुख भारो। किमी भौतिक समृद्धि की अभिलाषा नही हुमा करती; एजी म्हानं कर्म शत्रु प्रति पीडे न्याव निरवारो। उन्हें कामना होती है केवल प्रादर्श अथवा अनुकरणीय एजी थे त्रिभुवन अंतरजामो प्ररज अवधारो। मानव बनने की। तुलसी ने स्वय को सन्त बना देने की एजी अब 'मानिक' को भववधि से हस्त परि निरवारौ। कृपा चाही थी२ । माणिकचन्द को भी जिनेन्द्र से इन्द्रिय दमन, देव, धर्म व गुरुयो का सेवन, कुगुरुग्रो का परित्याग माणिक जिनेन्द्र से अपना सम्बन्ध भी निकाल लेते प्रमाद का विनाश तथा शास्त्र व साधर्मियों के ससर्ग व हैं. वह पतित है जिनेन्द्र पतित पावन, दोनों का हित प्रात्म-चिन्नन की याचना ही अभीष्ट है पर पर निभर है। भक्तप्रवर तुलमान भा अपने निज हित माहोमवि लागना। आराध्य से उद्धार की प्रार्थना करते समय उनसे सम्बन्ध तेरो शत्र प्रमाव प्रबल है निश दिन ताों स्यागमा । निकालने की युक्ति सोची थी 'मैं पतित तुम पतित-पावन इनिय चाल चोर निज धन के तिनके मग नहि लागना। दोउ बानिक बने ।'१ 'जिन' भगवान् को भी पतित-पावन तत-पावन हित के कारण देव धर्म गुरु तिनसों नित प्रति पागना । कहलाने के लिए अपने सम्बन्धी भक्त का उद्धार करना प्रति देतगराविक परखिके दूरिहित तजि भागना। ही पड़ेगा जिन श्रुत साधर्मो सुसंगति 'मानिक' प्रभु ने मांगना । महारो दुख वेगि मिटाउ जगतपति अषम उषारण । माराध्य का गुण-गान, स्वदोपो का कथन, उद्धार की मोह शत्रु म्हार पंड परौ है निशिदिन करत दवाउ। प्रार्थना, भक्ति की अनन्यता व निष्कामता प्रादि विशेषम्हे तो पतित थे पतित जु पावन अपनो विरद निवाउ । 'मानिक' प्ररज सुनों करुगा करि परि को सग छडाउ। २. पद सग्रह ४२८, पृ० ४४, दुलीचद भडार जयपुर यहां 'म्हारो दुःख वेग मिटाउ' में भक्त का तीव २. कबहुँक ही यह रहनि रहोगे। श्री रधुनाथ कृपालु कृपा ते सन्त सुभाव गहोंगे। १. विनय-पत्रिका पद १६० -विनय-पत्रिका

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