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अनेकान्त
और प्रभाकर शासनों की परीक्षा की गई हैं। तत्त्वोपप्लव प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ दुर्गाकुण्ड रोड, वाराऔर अनेकान्त शासन की परीक्षा अनुपलब्ध है। मूलग्रन्थ एसी, पृष्ठ संख्या २१०, मूल्य ८) रुपये। ४७ पृष्ठों में समाप्त हुआ है । अन्त में १३ पृष्ठों के परि- प्रस्तु ग्रन्थ संस्कृत भाषा का पद्यमय ग्रन्थ है, पद्य शिष्ट है । प्रारम्भ मे जैन प्राकृत वैशाली इन्स्टीट्यूट के प्रायः अनुष्टुप है। अन्य पांच प्रस्तावो में विभक्त है। मंचालक डा. नथमल टांटिया की अग्रेजी प्रस्तावना है। ग्रन्थ में महान् विद्या प्रचारक मालव नरेश का जो विद्वानों उसके बाद सम्पादक की प्रस्तावना है, दोनों पृष्ठ संख्या का सन्मानदाता था। और जो सस्कृत भाषा का अच्छा ३८ और ३४ है, दोनों प्रस्तावनाएँ अपने में महत्वपूर्ण हैं। विद्वान् कवि था, उसकी राजसभा मे अनेक विद्वान रहते डा. टाटिया ने अपनी प्रस्तावना मे चित दर्शनों के थे। जो कोई विद्वान नवीन श्लोक बना कर राजा भोज सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला है और प्रारम्भ मे डाक्टर को सुनाता था, तब भोज उसे बड़ा पारितोषक प्रदान माहब ने समन्तभद्र और सिद्धसेन के सम्बन्ध मे भी कुछ करता था। यदि कोई विद्वान दरिद्र होता था तो वह लिखा है । ५० सुखलाल जी सघवी समन्तभद्र को सिद्ध- प्रचुर द्रव्य देकर उसकी दरिद्रता भी दूर कर देता था। सेन और पूज्यपाद के बाद का विद्वान मानते है। डा० राजा भोज की विद्या-बद्धिनी प्रवृत्ति पर भोज प्रबन्धादि टाटिया ने भी उसी का अनुसरण किया है। जब एक दृष्टि अनेक ग्रन्थ लिखे गये है। इससे स्पष्ट है कि राजा भोज कोण बना लिया जाता है, भले ही वह गलत हो, तो भी विद्वानो को कितना प्रिय था। वह उनके प्राश्रयदाता उसके अनुकूल साधन सामग्री जुटाने का यत्न किया जाता के रूप में प्रसिद्ध रहा है। इसी से विद्वानों ने भोज है। प्राचार्य समन्तभद्र के सम्बन्ध मे भी एक वर्ग ने चरित्र पर अनेक ग्रन्थ लिखे है। उनमे प्रस्तुत ग्रन्थ भी एक अपना ऐसा ही दृष्टिकोण बना लिया है और वह उसी है, जो जैन कवि राजवल्लभ द्वारा रचा गया है। की पुष्टि मे लगा हुमा है । इस पर यहा कुछ लिखना मप्रा- जिसमें भोजराज की पठनीय जीवनचर्या सगृहीत है। सगिक होगा, प्रतः फिर कभी इस गलत धारणा पर लिखने प्रस्तुत भोज चरित्र की एक बड़ी विशेषता यह है कि यह का यत्न किया जावेगा। निष्पक्ष ऐतिहासिक दृष्टि से केवल चरित्र ही नही है किन्तु इसमे दिये गये अनेक उनकी यह कल्पना सम्मत नही कही जा सकती, उसका विवरण साहित्य पुरातत्त्व की जाच मे सही निकलते है। पहा उल्लेख करना भी उचित न था।
इसी से इस काव्य की ऐतिहासिक महत्ता है। श्री गोकुलचन्द जी का यह प्रथम सम्पादन कार्य है।
सम्पादकों ने ग्रन्थ का सम्पादन बड़ी कुशलता से किया प्रथम प्रयास में ही उनकी सफलता बधाई के योग्य है। वे उदीयमान लेखक तथा सम्पादक है। उनसे समाज को
है। और प्रस्तावना मे उसके प्रतिपाद्य विषय पर अच्छा
प्रकाश डाला है। सं० १४६८ की प्रति को कर्ता के बड़ी प्राशाएँ है । इस सुन्दर प्रकाशन के लिए भारतीय
काल की अन्तिम अवधि मान ली है महत्त्वपूर्ण अग्रेजी ज्ञानपीठ धन्यवाद की पात्र है।
प्रस्तावना, नोट्स तथा परिशिष्ट भी दिये है। उसमे ग्रन्थ ३-भोज चरित्र-लेखक श्री राजवल्लभ, सम्पादक डा. व कथा का सक्षिप्त परिचय और श्लोको का भाव स्पष्ट
बी. सी. एच छाबड़ा एम ए., एम प्रो. एल., पी. करने के लिए तथा उसके कर्ता के सम्बन्ध की समस्त ज्ञातव्य एच. डी. एफ. ए. एस. ज्वाइण्ट डायरेक्टर जनरल बातों का विद्वत्तापूर्ण रीति से विवेचन किया है। इस
डया तथा एस. शकर नारा- सुन्दर प्रकाशन के लिए सम्पादक और भारतीय ज्ञानपीठ, यणन एम. ए. शिरोमणि, असिस्टेण्ट सुपरिन्टेण्डेट के संचालक धन्यवाद के पात्र है। फार एपिग्राफी।
-परमानन्द शास्त्री