________________
साहित्य-समीक्षा
१-उपासकाध्ययन, मूललेखक-सोमदेव सूरि, सम्पादक ग्रन्थ के अन्त में शोलापुर निवासी ५० जिनदास
अनुवादक ५० कैलाशचन्द सिद्धान्तशास्त्री, प्रधाना- शास्त्री द्वारा रचित सस्कृत टीका भी दे दी गई है। चार्य स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी, प्रकाणक, जिससे सस्कृत पाठी भी यथेष्ट लाभ उठा सकते है। भारतीय ज्ञानपीठ काशी, पृष्ठ सख्या ६३९ । मूल्य सजिल्द प्रति का १२) रुपया।
ग्रन्थ सम्पादक प० कैलाशचन्द शास्त्री ने अपनी ९६पृष्ठ
की महत्वपूर्ण प्रस्तावना मे ग्रन्थ और ग्रन्थकार के विषय में प्रस्तुत उपासकाध्ययन सोमदेव मूरि के यशस्तिलक सुन्दर विवेचन किया है। पौर श्रापकाचार के मम्बन्ध में चम्पू के अन्तिम तीन प्राश्वास है । ग्रन्थकर्ता ने स्वय इन्हें तुलनात्मक दृष्टि से विचार किया गया है। यदि श्वेताम्बरीय उपासकाध्ययन नाम से उल्लेखित किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ श्रावकाचागे से भी तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया ४६ कल्पो में विभाजित है। जिनमे श्रावको के प्राचार जाता तो और भी अच्छा होता। पूजा के सम्बन्ध में और उनसे सम्बन्धित विषयो पर युक्ति पूर्वक विचार वैदिक मान्यताम्रो का भी उलनेम्व किया है। एमे कटिन किया गया है। प्राचार्य सोमदेव अपने समय के प्रख्यात प्रन्थ का हिन्दी अनुवाद करते हुए उसे मरल भाषा मे विद्वान् थे। वे तर्क, व्याकरण, सिद्धान्त, नीति और रखने का प्रयत्न किया है और भावार्थ द्वारा विषय को साहित्यादि विविध विषयो के अधिकारी बहुश्रुत विद्वान् स्पष्ट करने का भी प्रयाम किया है। इसके लिये वे बधाई थे। उनकी विद्वत्ता का परिचय उनकी कृति यशस्तिलक के पात्र है। ऐसे मुन्दर सपादन प्रकाशन के लिए भारतीय चम्पू से मिल जाता है। यह उच्चकोटि की रचना है। ज्ञानपीट और उसके प्रधिकारीगण धन्यवाद के पात्र है। इनका समय शक म०८८१ (वि० स० १०१६) है।
२-- सत्यशासन परीक्षा--ग्राचार्य विद्यानन्दि, सम्पादक कर्ता ने उस काल में होने वाली दार्शनिक प्रवृत्तियो का आलोचन किया है और वस्तुतत्त्व को दर्शाने का सफल
प्राचार्य गोकलचन्द जैन एम. ए, प्रकाशक भारतीय प्रयास किया है। साथ ही दर्शनान्तरीय मतो का युक्ति
ज्ञानपीठ काशी, मूल्य मजिल्द प्रति का ५) रुपया। पुरस्सर निरसन भी किया है, और जैन वस्तु-नत्त्वका- जैन परम्पग में प्राचार्य विद्यानन्द का स्थान प्रवनक प्राप्त प्रागम और पदार्थ का सुन्दर विवेचन किया है। देव के पश्चात् ही पाना है । उनकी अष्टमहनी, नत्यार्थ
क्षा पूजा और पूजा के प्रकारों का जितना सुन्दर वर्णन इस श्लोक वानिक, ग्राप्नपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, प ग्रन्थ में पाया जाना है वमा अन्यत्र देखने में नहीं पाया। प्रादि कृतियाँ जैन दशन की ही नही किन्न भाग्नीय और जैन श्रावकाचार की प्रक्रिया का वर्णन करते हुए
दर्शन को अमूल्य निधि है। वे उच्चकादि के भान् गद्य-पद्य मे विस्तृत विवेचन किया है। उनमे अनेक बातो दार्शनिक विद्वान् थे। उनको कोटि के दागानक विद्वान् का वैसा सुन्दर वर्णन अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता। ग्रन्थ भारतीय परम्पग में बहन ही कम हा है। उनकी पति का यह माङ्गोपाङ विवेचन हृदयग्राही हा है। कर्ता ने अभी तक अप्रकाशित थी, प्रथम बार ही उन । प्रकाशन लौकिक कार्यों के करने की सुन्दर सीमा का उल्लेख करते हुया है । प्रति अपूर्ण है-उसकी पूर्ण प्रनि अभी तक हुए अच्छा पथ-प्रदर्शन किया है।
कही उपलब्ध नहीं हो सकी। सर्व एव हि नाना प्रमाण लौकिको विधिः । प्रस्तुत ग्रन्थ में पुरुपाद्वैत, शब्दात, विज्ञानाद्वंत, यत्र सम्यक्त्व हानिनं यत्र न व्रतद्रूपणम् ॥
चित्रात इन चार प्रदान गामनो की तथा चार्वाक, बौद्ध इस प्रकार का विधान अन्यत्र नहीं मिलता। सेश्वरसाख्य, निरीश्वर साख्य, नैयायिक, ५ अगिक, भाट्ट