________________
१४
अनेकान्त .
है। जिसके द्वारा मनुष्य दूसरे मनुष्य के समीप पहुँच स्वागत सत्कार तो हुना ही है किन्तु कितने स्थानों में सके।" बम्बई से अपनी राजधानी बेटीकन की भोर हवाई विरोध भी । श्री पी० के० हरिवंश द्वारा ६-१२-६४ के जहाज द्वारा जाते हुए विमान के ही रेडियो से भारत के दैनिक प्राज में 'भारत में पोप का स्वागत क्यों ?' श्री राष्ट्रपति के नाम सद्भावना सन्देश भी भेजा। क्योंकि भारतेन्द्रनाथ साहित्यालंकार द्वारा २२-११-६४ के दैनिक डा. राधाकृष्णन् पोप से मिलने के लिए ही विमान के प्राज में 'पोप की सेना का भारत पर हमला' । ४-१-६५ द्वारा दिल्ली से बम्बई गये थे।
के दैनिक प्राज में 'मुसलमान ईसाई धर्म-प्रचार से विरुद्ध इस सारे प्रसंग में भारत के लिए कलंक रूप, भारत
है । क्योकि ईसाई मुसलमानों को क्रिश्चियन बनाते हैं। का नैतिक जीवन भी कितना नीचा प्रा गया है? वह
६-१२-६४ के दैनिक माज में "यदि ईसाई हजरत किसी दर्शाता हुमा एक खास प्रसंग कहता है कि:-चोरी, बद
मुस्लिम देश में अपना सम्मेलन करने का विचार भी करे माशी प्रादि दुर्घटनामों को रोकने के लिए गुप्तचर विभाग
तो मजा पा जाय । सम्मेलन करना तो दूर रहा मुसलमान पूर्ण सक्रिय था। दो सौ से अधिक गुण्डे जेबकतरे (पाकेट
प्रधान देश मे ईसाइयों को पैर रखने तक की अनुमति भी मार) बदमाश प्रादि को गिरफ्तार किया गया था। कहाँ
नही मिल सकती । इत्यादि । प्राचीन भारत का गौरवपूर्ण प्रादर्श, नैतिक तथा प्राध्या- ईसाई विश्व सम्मेलन की प्रशस्ति करते हुए भावनगर त्मिक जीवन, जहां जन-साधारण भी खुले पड़े सोने या सौराष्ट्र से प्रगट होने वाले 'जैन' साप्ताहिक के विद्वान् तन्त्री जवाहरात के ऊपर दृष्टि नहीं करता था, वहाँ आज देव- ने पृष्ठ ७५३ पर लिखा है कि "अड़तीसवाँ विश्व ईसाई मन्दिरों की सम्पत्ति की रक्षा करनी भी प्रत्यन्त दुर्लभ है। सम्मेलन का यह प्रसंग हिन्दुस्तान में हुई एक महत्व की अाज तो भारत की सरकार भी नैतिक रीति से सहस्रा- घटना के रूप मे यादगार बन गया। पोप ने समय को ब्दियों से चली माती साधारण जनता को भी चोरी, परख कर बेटीकन में ही अवरुद्ध रहने की प्रथा मे परिवर्तन बेईमानी, छल, प्रपंच, कपट, दगा, धोखा आदि के दुखद किया । इतना बड़ा विश्व सम्मेलन भारत के लिए उदामार्ग पर बलात्कार धकेल रही है। जनसाधारण को भारत हरण रूप बन गया है । "वहाँ व्यवस्था अजब थी और का वर्तमान जनजीवन बिल्कुल असह्य हो रहा है। ज्ञानी शान्ति अपूर्व ।" तन्त्री श्री आगे चलकर लिखते हैं किभगवान ही जाने कि भारत की आध्यात्मिक सस्कृति की पतित, दलित, दरिद्र, दु.खी और रोगग्रस्त अज्ञान मानवरक्षा कौन ? कब ? कैसे करेगा? क्या किसी युग प्रधान समूहो को अपनाकर ही क्रिश्चियन धर्म विश्वभर में महा महापुरुष के प्रोगमन के मणकारे भारत के वायुमण्डल मे वट वृक्ष की तरह अपना विस्तार कर सका। यह बात बज रहे है।
कभी भी भूलने जैसी नही है। अड़तीसवें विश्व ईसाई सम्मेलन का उल्लेखनीय अब अपन सातवे विश्व बौद्ध सम्मेलन की पोर पावे।
(क्रमशः)
स्व और पर को भिन्न करने वाला जो ज्ञान है वही ज्ञान कहा जाता है। इस ज्ञान को प्रयोजन भूत कहा गया है । इसके सिवाय बाकी का सब ज्ञान प्रशान है। जिन भगवान् शुद्ध प्रात्मवशारूप शान्त हैं। उनको प्रतीति को जिन-प्रतिबिम्ब सूचन करती है। उस शांतदशा को पाने के लिए जो परिणति, अनुकरण अथवा मार्ग है उसका नाम जैन मार्ग है। इस मार्ग पर चलने से जैनस्व प्राप्त होता है।
-श्रीमद् राजचन्द्र