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खजुराहो का माविनाय जिनालय
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प्रदक्षिणा के इस अकन के बाद इस मन्दिर की जो नृत्य गान रत गंधर्व हैं तथा ऊपर के तोरण में भी पांच विशेषता हमारा ध्यान आकर्षित करती है वह है इसके कोष्ठक बना कर प्रत्येक में वैसी ही शासन देवियों का ऊंचे शिखर की सादगी और उस पर रखे कलश की अंकन है जिनके हाथों में शंख, कमल, कलश, कुलिश, भव्यता । इस शिखर में पाश्र्वनाथ मन्दिर के शिखर की पाश मादि प्रायुध हैं। एक देवी बालक को स्तन पान तरह उरु शृग अथवा कर्ण शिखर नही बनाए गए हैं, कराती हुई एक हाथ मे पाम्र मंजरी लिए ग्राम के वृक्ष बल्कि अधिष्ठान और भित्तियों के ऊपर से एक दम के नीचे सिंह पर बैठी दिखाई गई है। यह बाईसवे प्रारम्भ होकर यहाँ शिखर ने भगवान की निर्वाण भूमि तीर्थकर नेमिनाथ की यक्षी मम्बिका है। कैलाश की किसी अलंध्य चोटी का रूप प्रदर्शित कर इस द्वार के सबसे ऊपर के तोरण में शची द्वारा दिया है।
सेवित तीर्थकर की माता को शयन करते हुए अंकित इस शिखर को देख कर सहज ही कोणार्क और किया गया है तथा उसके बाद माता के सोलह स्वप्न भुवनेश्वर शैली के मन्दिरो की याद या जाती है। सज्जा दिखाए गए हैं है। सोलह स्वप्न तो जैन मन्दिरों मे भनेक मे उपयुक्त एक रस शैली भी आँखो को कानही देती जगह प्रकित है किन्तु तीर्थकर की माता का साथ में अंकन बल्कि अपनी सहजता की ओर अधिक आकर्षित करती इस मन्दिर की विशेषता है।
__मन्दिर का गर्भ गृह अत्यन्त सादा है और वेदिका ऊपर की सूची-चक्र-ग्रामलक और कुम्भ-कलश बहत बाद की बनाई गई शात होती है। दो कमल प्राकृति मनोहर बन पडे है और यह भाग निश्चित ही पाश्वनाथ पाषाणो को जोड़ कर वह पशिला बनाई गई है जिससे मन्दिर के शिखर भाग से अधिक लुभावना है।
इस गर्भालय को सुन्दर छत का निर्माण हुआ है। इस मन्दिर का प्रवेश द्वार अपने समस्त सज्जागत पार्श्वनाथ मन्दिर की तरह इस मन्दिर की मूल शिल्प-वैभव के साथ अपनी सही स्थिति में अवस्थित है। प्रतिमा भी स्थानांतरित हो चुकी है और वर्तमान में काले दोनो ओर गगा-यमुना और द्वारपाल अकित है। इनके पाषाण को वृषभ चिह्नाकित जटाधारी भगवान मादिनाथ ऊपर कोष्ठको मे जहाँ प्राय. मिथुन का अकन पाया जाता की जो प्रतिमा यहाँ विराजित है वह बाद मे स्थापित की है यहाँ उसका अभाव है। मिथुन की जगह यहाँ इन गई है। इस पर भी सवत् १२१५ का शिलालेख है। कोष्ठकों मे चतुर्भुजी शासन देवियो की उपस्थिति उल्लेख- इस प्रकार यह मन्दिर छोटा होकर भी अपने माप में नीय है। इन देवियो के आसन में हिरण, तोता, सिह स्थापत्य की अनेक विधानों को लिए हुए मध्यकालीन और बैल आदि वाहन भी बने है । देवियो के दोनों ओर कला का एक श्रेष्ठ उदाहरण है।
एक सम्बोधक-पद
कविवर रूपचन्द मानस जनम वृथा ते खोयो। करम करम करि प्राइ मिल्यौ हो, निच करम करि करि सुविगोयो ॥१॥ भाग्य विशेष सुधारस पायो, सो ल चरणनिको मल घोणे। चितामनि फक्यो वाइसको, कंजर भरि करि ईषन ढोयो ।। धन की तष्णा प्रोति वनिता की, भलि रह्यो वृष ते मुख गोयो। सुख के हेत विषय सब सेये, घृत के कारण सलिल विलोयो ॥३॥ माचि रह्यो प्रमाव मद मदिरा, प्रर कंदर्प सर्प विष मोह्यो। रूपचन्द चेत्यो न चितायो, मोह नोंद निश्चल हं सोयो ॥४॥