Book Title: Anekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 297
________________ माणिकचंद : एक भक्त कवि गंगाराम गर्ग एम० ए०, जयपुर जब रीतिकाल में स्वर्ण-लोलुप कवि सुरा और सुन्दरी भावो का स्थान गौण है। तीर्थडगे के जन्म-कल्याणक को अपना लक्ष्य बनाकर हिदी-काव्य-धारा को पंकिल कर उत्सवों के समय उनके हृदय मे वात्सल्य की स्थिति दृष्टिरहे थे और जिसकी कामुकता की भंवरों मे पड़कर मानव गोचर होती है किन्तु वह प्रायः सस्कृत और अपभ्रश के की जीवन-नौका दिशा-भ्रष्ट हो रही थी। उस समय उसे ग्रन्थों के अनुसार है, मौलिक कम । परमात्मा द्वारा चेतन सम्बलित कर सही दिशा में ले जाने के लिए जैन कवि के उद्बोधित किए जाने में ही जैन भक्तों का कहीं-कही ही मागे पाए। एक ने रीति-ग्रन्थो का अनुवाद करते हए सख्य भाव दिखाई देता है । माणिकचद के भी भक्तिपरक नायिकानों की नग्नता और विलासिता का वर्णन कर पदों मे दास्य और मधुर भाव की प्रधानता है। मनुष्य की कामुकता को उभारा तो दूसरे ने चरित्र-ग्रन्थों दास्य-भाव-माणिकचद अपने सेव्य का स्वरूप का अनुवाद करते हुए उसको नैतिक जागरूकता प्रदान अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख व अनन्त वीर्य से की; एक ने पार्थिव राजामों की झूठी प्रशस्तियाँ गा-गा युक्त, अविचल, अविकारी शान्त व परम दीप्तिमान् मानते कर स्वर्ण-राशियाँ बटोरी, तो दूसरे ने अपने प्राराध्य के है, जो जैन दर्शन के अनुसार ही है। भक्त ने केवल जैन चरणों में श्रद्धा-सुमन चढ़ाकर प्रात्म सुख को ही सर्वस्व दर्शन से ही न बधकर तीर्थङ्करों के स्वरूप में अपने दास्य समझा । मानव-जीवन की परस्पर विरोधी धारणाएँ भावानुकूल जगनायक और उद्धार-कर्तृत्व को भी स्थान समानान्तर होकर यदि साथ-साथ चली तो केवल रीति दिया हैकालीन काव्य में ही; एक धारणा के प्रतिनिधि थे बिहारी, "कहाँ जाउँ तज शरण तुम्हारो। कुलपति मतिराम और पद्माकर प्रादि दरबारी कवि तथा तुम शिव नायक सबके ज्ञायक शिव मारग दरशावनहारे । दूसरी के खुशालचन्द्र, जगतराम, अनन्तराम आदि जैन कवि । जग के देव सरागी जिन हमरे सब काज बिगारे । प्रष्ट कर्म तुम चूरि किये कीचक प्रादि अषम बहु तारे । माणिकचद भावसा का जन्म १९वी विक्रम शताब्दी के अन्त मे जयपुर मे हुआ था, जहाँ की भूमि को उनसे तुमरो ध्यान धरत सुर मुनि खग पहले जोधराज, बुधजन, नवल आदि प्रसिद्ध जैन कवि अपनी मानिक हृदयबसो भवि प्यारे॥ भक्ति-काव्य-धारा से रस-सिक्त कर चुके थे। उसी काव्य 'जिन' भगवान् के गुण-गान की अपेक्षा माणिकचद ने धारा को माणिकचद ने भी आगे बढ़ाया। उनका कोई अपने प्रवगुणों तथा कष्टो को उनसे अधिक व्यक्त किया अनूदित चरित्र-ग्रन्थ तो उपलब्ध नहीं हुआ; हाँ, बाबा है। वे कहते है, इन राग, द्वेष व भ्रमों ने मेरे समस्त कार्य दुलीचन्द भडार जयपुर के पद-संग्रह ४२% में उनके १८३ बिगाड दिए, हे अधम-उद्धारक ! इन्हें नष्ट कीजियेपद अवश्य प्राप्त हुए है। "श्री जिन म्हारी अरज सुनौ म्हाराज। माणिकचन्द की भक्ति-अपने पाराध्य के प्रति भक्ति हे त्रिभुवन सिरताज । प्रदर्शित करने के लिए प्राचार्यों ने चार भाव प्रमुखतः राग दोष भ्रम भाव जु मेरो होन न देय निज काज । माने हैं-वात्सल्य भाव, सख्य भाव, मधुर भाव और मैं चिर दुःखी भयो विषि बस करि मेटि गरीब निवाज । दास्य भाव । पांचवां भाव शान्त भाव इन्हीं में अन्तर्भूत तुम तो प्रथम अनेक उपारे तिन पायो शिवराज । माना जाता है। हिन्दी के जैन भक्तों के हृदय में प्रथम दो 'मानिक' चरण शरण गहि लीनों तुम्हीं को हमारी लाज ॥"

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