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(ई) के घासपास है। अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि वि० सं १४७० और १४७६ के मध्य किसी समय उनका स्वर्गवास हुप्रा ।
वि० सं १४६१ की पद्मनन्दि के गुरु भाई प्रभयकीति की दिल्ली नगर मे ही लिखाई गई एक प्रशस्ति में गुरु प्रभाचन्द्र का तो उल्लेख है किन्तु पद्मनन्दि का कोई उल्लेख नहीं है। इसी प्रकार वि० सं० १४५४ में प्रभाचन्द्र के गृहस्थ शिष्य धनपाल कवि द्वारा रचित बाहुबलिचरित में भी भ० पद्मनन्दि का कोई उल्लेख नहीं है १५ । इस ग्रन्थ की रचना कवि ने चंदवाड़ के चौहान नरेश अभयचन्द्र के मन्त्री साधिप वासापर की प्रेरणा से की थी । प्रशस्ति में वासाघर के धाठ पुत्रों का उल्लेख है१६ इन्हीं वासावर के हितार्थ प्रस्तुत भ० पद्मनन्दि ने अपना श्रावकाचारसारोद्वार (पद्मनन्दि भाजकाचार लिखा था ग्रन्थ में रचनाकाल नहीं दिया दिया है और उसकी प्रशस्ति में वासावर के पुत्रों का भी कोई उल्लेख नहीं है, किन्तु उनके पितामह, पिता और सात भाइयो का वर्णन है और उनके पिता सोमदेव के अवकाश ग्रहण करने की बात भी ऐसे लिखी है जैसे कि वह थोड़े समय पूर्व की ही घटना हो१७ । इससे प्रतीत होता है कि पद्मनन्दि के उक्त ग्रन्थ की रचना वि० स० १४५४ से पर्याप्त पूर्व संभव है पंद्रह-बीस वर्ष पूर्व हो चुकी वि० सं० १४५० में इन्हीं प्रभाचन्द शिष्य भ० पद्मननद ने चौहान राजा भंडुदेव ( जो शायद भदावर प्रान्तके कोई नरेश थे) के पुत्र श्री सुवर के राज्य में बोलाराखान्वयी बावक के लिये धातुमयी भादिनाय समवसरण की प्रतिष्ठा की मीरा उपरोक्त के अतिरिक्त इनकी कोई निश्चित तिथि अभी तक ज्ञात नहीं हुई है ।
हाँ, बीकानेर प्रदेश में दो प्रतिमाले ऐसे शप्त हुए है जिनमें 'श्री मूलचे भट्टारक श्री पद्मनन्दिदेव गुरु
१५. जं० प्र० प्रशास्ति संग्रह, भाग २, पृ० ३२-३७ १६. वही । राजा प्रभयचन्द्र की अंतिम ज्ञाततिथि भी वि०सं०] ८४५४ ही है।
१७. जे० प्र० प्रशस्ति संग्रह मा० पृ० २०-२३ १५. कामताप्रसाद जैन-चै० प्रतिमा लेख संग्रह
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देशेन' रूप में एक पद्मनन्दि का उल्लेख प्राप्त होता है। इन लेखों में से एक संवत् १३७३ का है पोर दूसरा संवत् १३८७ का है १६] भव प्रश्न यह है कि क्या यह 'मूलसंघी भट्टारक पद्मनन्दि' हमारे दिल्ली पट्टाधीश म पद्मनन्दि से भिन्न है जिनका कि अस्तित्व वि० सं० १४७०-७१ तक तो पाया जाता है ? यदि ऐसा माना जायेगा तो उनका भट्टारक जीवन या पट्टकाल लगभग एक सौ वर्ष बैठता है जब कि पट्टायलियों के धनुसार भी यह केवल ६५ वर्ष ही है। इसके अतिरिक्त जैसा कि देखेंगे उनके गुरु प्रभाचन्द्र का अस्तित्व वि० ० १४१६ तक संभव है। ऐसी स्थिति में पद्मदि का प्राचार्य काल (भट्टारक जीवन या पट्टकाल) उसके आसपास या कुछ बाद ही प्रारम्भ होना चाहिए। पट्टाबलि प्रतिपादित ६५ वर्ष का समय उनके सम्पूर्ण मुनि जीवन का सूचक हो और यह संस्था ठीक हो तो भी वि० सं० १४१६ से पांच-सात वर्ष पूर्व दीक्षित होने पर वह ठीक बैठ जाता है उसके पूर्व उनका भट्टारक के रूप में अस्तित्व वहां होना असम्भव सा लगता है। मुनिदिवस ऐतिहासिक प्रमाणों के बाधार से जिस प्रकार उनकी उत्तरावधि वि० स० १४५० से बीस या पच्चीस वर्ष प्रागे खिसकानी पडी है उसी प्रकार उनकी पूर्वावधि १३८५ में भी उतनी ही, बल्कि उससे कुछ अधिक वर्षो की वृद्धि करनी पटगी२० मतएव बोकानेर के उक्त दोनो लेखों की तिथियों के पढ़ने लिखने या छपने में यदि कोई भूल नहीं हुई है तो १९. बीकानेर जैन लं० सग्रह, न० २५६ और ३१८ २०. जंसा कथन किया जा चुका है पट्टावलियों में म० पद्मनदि का पट्टकाल वि० सं० १३०५-१४५० दिया है। किंतु पं० परमानन्द जी ने (जं० प्र० प्र० सहभाग १, पृ० १६, २१ पर ) न जाने किस प्राधार पर सं० १३७५ सूचित किया है। इसी प्रकार का कैने जैनिज्म इन राजस्थान, पृ० ७४ ] पर) भो न जाने किस माधार पर १३२५ ई० (वि० सं० १३८२) कथन किया है।